________________
१५०
श्रीमद्भगवद्गीता रहनेसे, अप्राप्त तथा प्राप्तव्य विषय रूप भूत भविष्यत् काल-विभाग नहीं रहता,-कर्म-रूपसे ही वह सर्वथा वर्तमान है। कर्मप्रवाहमें जीवोंके लिये भूत भविष्यतू काल विभाग है, परमात्मामें नहीं; कारण यह है कि, जीव स्वल्पज्ञ कह करके एककालदर्शी, आत्मा सर्वज्ञ तथा सर्वव्यापी बोल करके सर्वत्र वर्तमान * है। साधक समाधिसाम्यमें उपस्थित हो करके विश्वकोषके ऊपर विशुद्ध "मैं" में परिणत होनेसे प्रत्यक्ष करते हैं कि, वह जो विश्वकोषके भीतर अविशुद्ध अवस्थामें कर्तव्य-प्राप्तव्य-अप्राप्त प्रभृति अभाव-ज्ञान करके दौड़ा दौड़ी करते थे, वह केवल भ्रममात्र है; वह साक्षी स्वरूप कर्ममें वर्तमान रहते हैं,
* इसको एक उदाहरणसे थोड़ासा समझनेकी चेष्ठा की जाती है; यथा;-मट्टी, जल, वायु, मेघ-इन सबके भीतर बाहर सवत्र आकाश विद्यमान है। इस आकाशमें विभिन्न रूप धरके जल चक्राकार प्रवाहमें सर्वदा वर्तमान है; क्योंकि सागर, नदी
और दूसरे दूसरे जलाशयका जल- निम्नगामी हो के पृथिवोके अन्तरतम स्थान भिङ्गायके फवारा रूप धरके पुनश्च ऊपर उठ आता है, फिर वाष्प होकर वायुमंडलका आश्रय करके ऊपर मेवाकारसे परिणत हो करके वृष्टि रूपसे गलके पृथिवी, नदी, सागर प्रभृतिमें फिर चला आती है; इस प्रकार अनन्त प्रवाह चलताही रहता है, विराम नहीं। एकठो जलकणाके अनुसरण करनेसे देखा जाता है कि, वह जलकणा स्थिर नहीं, चंचल है। जलकणा जब नदीसे आय करके सागरमें वर्तमान होता है, तब नदीमें वह अतीत हो जाता है; जब सागरसे वाष्परूप धरके उठके वायुमें वर्तमान होता है, तब सागरमें उसका अस्तित्त्व रहता नहीं, अतीत होय जाता है; शेष में जब वृष्टिधारा रूपसे पड़ता है, तब पृथिवीमें वर्तमान होता है, और वायुमण्डलमें तब वह अतीत है। उसके इस अनन्त तथा अवश्यम्भावी उत्थान पतन रूप प्रवाहके सन्मुखमें भविष्यत् , और पश्चात् दिशामें अतीत वा भूत, वो जलकणा सागरमें वर्तमान होनेसे पृथिवी नदी-पर्वतादियोंके पास अतीत, वायुमार्गमें भविष्यत् ; किन्तु आकाशमें वह नित्य वर्तमान है। अनन्त आकाशके पास जलकणाके अस्तित्व सम्बन्धमें जैसे काल विभाग नहीं है, उसका अप्राप्ति तथा प्राप्तव्य भाव नहीं है, परमात्मामें तैसे कर्तव्य और काल विभाग है नहीं ॥ २२ ॥