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श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। इस शरीर में जैसे कौमार यौवन जरा करके भिन्न भिन्न अवस्थायें आती हैं ( किन्तु देही का कोई परिवर्तन नहीं होता वह ज्यों का त्यों ही रहता है ), जीवकी भिन्न भिन्न देह प्राप्ति भी उसी प्रकार (अवस्था एवं आवरणका परिवर्तन मात्र ) है। इसमें धीर* (धी-बुद्धि, रा धातु-ग्रहण करना ) अर्थात् जो साधक बुद्धिक्षेत्रमें स्थिति लाभ करते हैं, वह मोहित नहीं होते। वह महाशय निश्चयात्मिका वृत्ति द्वारा सत् असत्को पहचानकर सत्का ही आश्रय करते हैं असत्के मोहमें नहीं पड़ते ॥ १३ ॥
मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तास्तितिक्षस्व भारत ॥ १४ ॥ यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ १५ ।। अन्वयः: हे कौन्तेय ! मात्रास्पर्शाः तु ( इन्द्रियवृत्तीनां विषयेषु सम्बन्धाः ) शीतोष्णसुखदुःखदाः (शीतोष्णादिप्रदाः) आगमापायिनः ( आगमापायशोलाः ) अतएव अनित्याः; हे भारत! तान् तितिक्षस्व ( सहस्व )। हे पुरुषर्षभ । एते (मात्रास्पाः ) यं समदुःखसुखं धीरं ( धीमन्तं ) पुरुषं न व्यथयन्ति ( न अभिभवन्ति ) सः हि अमृतत्वाय ( मोक्षाय ) कल्पते ( योग्यो भवति ) ॥ १४ ॥ १५ ॥
अनुवाद। हे कौन्तेय ! त्रात्रास्पर्श सकल ( विषयमें इन्द्रिय-वृत्ति के संयोग ) शीत-उष्ण-सुख-दुःख प्रदान करते हैं; वह सब आगमापायि ( उत्पत्तिनाशधर्मी) अतएव अनित्य हैं। हे भारत ! ( तुम उन सभोंको सहन करते चलो)। हे पुरुषर्षभ! ये सब ( मात्रास्पर्श ), सुख दुःख समान ज्ञान करने वाला जिस धौर पुरुषको व्यथित नहीं कर सकते वहो पुरुष अमृतत्व (मोक्ष ) पानेके योग्य हैं ।। १४ ॥ १५॥
* "विकारहेतौ सति विकियन्ते येषां न चेतांसि त एव धीराः।” अर्थात् विकारका हेतु रहनेसे भी जो विकारग्रस्त नहीं होते उन्हें ही "धीर" कहते हैं ॥१३॥