SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 378
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सप्तम अध्याय ३३६ तब और कोई किन नहीं रहता, दृढ़व्रत भी हुआ जाता है । इसी अवस्थापन्न लोग ही परमात्माका भजन करते हैं अर्थात् अभेदभावसे परमात्माका साक्षात्कार लाभ करते हैं ॥ २८ ॥ जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये । ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ॥ २६ ॥ अन्वयः । ये ( जनाः ) जरामरणमोक्षाय ( जरामरणयोनिरासनार्थ ) माँ आश्रित्य ( मत्समाहितचित्ताः सन्तः ) यतन्ति, ते तत् ( परं ) ब्रह्म विदुः, कृतस्नं ( समस्तं ) अध्यात्मं ( विदुः ), अखिलं ( सरहस्यं ) कम्म च ( विदुः ) ॥ २९ ॥ अनुवाद | जो लोग जरामरण निवारण करनेके लिये मुझको आश्रय करके प्रयत्न करते हैं, वह लोग तद् ब्रह्म, समस्त अध्यात्म, और अखिल कम्र्म्मको जानते हैं ।। २९ ।। व्याख्या । जरामरणही जीवकी श्राति है। शरीरके जीर्णताका नाम जरा, और जिस प्रकार से देह त्याग होनेसे पुनराय देह धारण करना पड़ता है, उसीका नाम मरण है । जरामरण निवारण करनेके लिये जो जो साधक भगवत्सेवामें नियुक्त होते हैं, वही लोग आतं भक्त हैं। आर्त्त भक्त ही क्रमोन्नति द्वारा जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी होते हैं, इसलिये तद्ब्रह्म, अध्यात्म और कर्म्मको सम्पूर्णरूप करके जान सकते हैं। ब्रह्म एक अद्वितीय होने पर भी, जगत् रचना - व्यापार के हिसाब से उसके तीन अवस्थायें हैं । वह तीन अवस्था यथा, - कार्य्यब्रह्म, शब्दब्रह्म और परब्रह्म है । कार्य्यब्रह्म - जीव जगत है; इसीको 'वर' कहते हैं । शब्दब्रह्म - परमेश्वर है; यह जीव जगत के आश्रय, कूटस्थ 'अक्षर' पुरुष है; इसलिये यह सगुण है । और जो परब्रह्म है, वह क्षर-अक्षर से अतीत उत्तम पुरुष है; उत्तम अर्थ में उत् + तम अर्थात तमो वा मायाके ऊर्ध्व में - मायातीत वा गुणातीत; अतएव परब्रह्म निर्गुण है ।
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy