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४४ - श्रीमद्भगवद्गीता इस प्रकार निजबोध ज्ञानको भाषामें व्यक्त करनेकी चेष्टा करना विडम्बनाके अतिरिक्त और कुछ नहीं ॥ ३२ ॥ ३३ ॥ ३४ ॥
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किन्नु महीकृते ।
निहत्य धार्तराष्ट्रान् नः का प्रीतिः स्याज्जनाईन ॥३५॥ अन्वयः। त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः ( प्राप्त्यर्थे ) अपि ( हन्तु न इच्छामि ); किन्तु ( किं पुनः ) महीकृते ( महीमात्र प्राप्तये )। हे जनाईन ! धार्तराष्ट्रान् निहत्य नः ( अस्माकम् ) का प्रोतिः स्यात् ? ॥ ३५ ॥ ___ अनुवाद। सामान्य पृथिवी का क्या बात है, त्रिभुवनका राजत्व प्राप्त होनेसे भी मैं इन लोगोंको मारनेकी इच्छा नहीं करता हूँ; हे जनाईन ! धातसष्ट्रों को विनाश करके हम सबको क्या सुख लाभ होगा ? ॥ ३५ ॥
व्याख्या। जनाईन = (जन+अ =यात्रा करना+अनट) 'पुरुषार्थ लाभके लिये जनोंसे जो याचित होते हैं। जनाईन-शब्द प्रयोगसे साधकका यह मनोभाव प्रकाश पाता है कि हे गुरो! दया कीजिये ! इस प्रकार कठोरता स्वीकार हमसे हो नहीं सकता; मुझसे जो हो सकता है, जिसमें मेरा भोग भी रहे और योग भी हो, ऐसा कोई उपाय कहिये। (अब साधक सांसारिक बुद्धिसे परिचालित होकरके अथच धर्मभाव अवलम्बन करके अपनेही जिद वजाय रखनेकी चेष्टा करते हैं )॥३५॥
पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः । तस्मान्नाहीं वयं हतु धार्तराष्ट्रान सबान्धवान् ।
स्वजन हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥३६॥ अन्वयः। एतान् ( आत्मीयगुरुजनसमन्वितान् ) आततायिनः* ( शत्रुन् ) हत्वा अस्मान् पापं एव आश्रयेत् तस्मात् सबान्धवान् धात राष्ट्रान् हन्तु वयं न अर्हाः ( योग्याः) हे माधव ! स्वजनं हि हत्वा कथं सुखिनः स्याम ।। ३६ ॥
* अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपणिर्धनापहः। क्षेत्र दारापहारी च पड़ेते आततायिनः ॥