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तृतीय अध्याय
१७३ सन्तप्त करता है, तथा विषय-संसर्ग करके धीरे धीरे बढ़ता है । आश्रयविहीन होनेसे अनल जैसे बुत जाता है, विषय त्याग होनेसे काम भी तैसे ही नाशको पाता है ॥ ३६ ॥ .
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
एतेर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥ ४०॥ अन्वयः। इन्द्रियाणि मनः बुद्धिः अस्य ( कामस्य ) अधिष्ठानं ( आश्रयः) उच्यते । एषः ( कामः ) एतः ( इन्द्रियादिभिः ) ज्ञानं ( विवेकज्ञानं ) आवृत्य देहिनं विमोहयति । ४०॥
अनुवाद। इन्द्रिय सकल, मन और बुद्धि--इन सबको कामके आश्रय कहते हैं। यह काम इनहो सबसे विवेक ज्ञानको ढक रखके देहीको विमोहित करता है ॥४०॥
' व्याख्या। त्याग-ग्रहणादि क्रिया कम्र्मेन्द्रियोंसे, दर्शन-श्रवणादि क्रिया ज्ञानेन्द्रियोंसे, और ध्यान-धारणा वा संकल्प-अध्यवसायादि क्रिया मन-बुद्धिसे होता है। इसलिये इन्द्रिय सकल, मन और बुद्धि, काम वा इच्छा का आधार है। ज्ञान भी इन्द्रिय-मन-- बुद्धिमें ही प्रकाश पाता है। इसलिये ज्ञान और काम परस्पर विरोधी है, एकके प्रबल होनेसे ही दूसरेका लोप होता है। तब काम और ज्ञानके भीतर विशेषता यही है कि, काम वा विषयेच्छा उर्द्धदिशामें आज्ञास्थित बुद्धि-क्षेत्र पर्यन्त ही आश्रय पाता है, इसके ऊर्द्धमें और जा नहीं सकता; किन्तु ज्ञान जा सकता है। ज्ञान प्रबल होनेसे समूची इन्द्रिय-मन-बुद्धिके पथ आलोकित करके खिले हुए आत्माको खिलाय देती है, देहीको सर्वदी करती है, और आप भी माया-ब्रह्म की सन्धि पर्य्यन्त विस्तृत होती है। किन्तु काम वा प्राप्ति की इच्छा जो जीव मात्रको हो प्रबल है इसमें और सन्देह नहीं, क्योंकि, मनमें कामना रहनेके लिये यह जीवदेह है, नहीं तो और जनम लेना होता ही नहीं। इसलिये गीले काष्ठमें जैसे आग नहीं लगती, तैसेही मनमें