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कोबके निकल कर जहां सताका परिमाण अधिक है और रजो मणका विमान कम और मूलाधार से जाचकके नीचेतक फैला हुआ मक्ष नाके तीनमें अर्थात् मणिपुरचको उन दोनों रजः सत्व)
गरेका परिमाण बराबर है, इसलिये यहां "समान वायु” की अखस्थिति है। इस धर्मशेल मनकी बात ही इस लोका कही हुई
ही योगमार्ग है। और आज्ञाचक अज्ञानतामय है इसलिये इसका दूसरा नाम अज्ञानचक है। क्रियाविशेषसे इस योगमार्गके भीतरसे उस अज्ञानचक्रको भेद करके परम शिवमें कुलकुण्डलिनी
चिके मिलन करने का नाम ही “योग” है। . 5
. "मामकाः पाण्डबा" Phमामकाः' मनोवृत्तियोंको और "पाण्डवाः” बुद्धिवृत्तियोंको जीनना। अर्थात् स्वरूपज्ञान के प्रकाश करनेवाली वृत्तियोंको बुद्धिवृत्ति, और विपरीत ज्ञान को प्रकाश करनेवाली वृत्तियोंको मनोवृत्ति कहते हैं। विपरीत उसको कहते हैं जैसे दर्पण (आईना ) के सामने खड़े होनसे उसमें जो छायामूर्ति दिखलाई पड़ती है, उसको (छायाको) कार्याका स्वरूप विकाशं कह कर मन पहिले हो मान लेता है। परन्तु बुद्धिके द्वारा विचार करनेसे निश्चर्य होता है कि वह कायाका "स्वरूपविकाश नहीं है, किन्तु विपरीत विकाश है, अर्थात् शरीरका दक्षिण अंश छाया में वाम अंश रूपसे दिखलाई पड़ता है। इसलिये पूज्यपाद आय्य लोग कह गये हैं-"विश्वं दर्पणदृश्यमाननगरीतुल्य" । तंद्र पात्मज्ञान और जगद्धम काया-छायासम्बन्धवत् 'विमा सूतका गुंथा हुश्रा फूलका हार सदृश है। मन सामने जो कुछ देखता है, उसीको सच्चा मान लेता है और उसमें आकृष्ट होकर संकल्पविकल्परूप क्रिया करता रहता है। इन्द्रियोंमें प्रधान होनेसे और इन्द्रियग्राह्य विषयों द्वारा परिवेष्टित रहनेके सबबसे, मन सदा विषयमें आसक्त रहता है, क्योंकि संगसे ही प्राथमिकी गति