________________
१३४
श्रीमद्भगवद्गीता अन्तरोस्थित भ्रमरगुंजन-रव करके मन मोहित हो जाय, तब सहस्त्रारसे सुधा ( अमृत ) का क्षरण होता रहता है; उस सुधाको गुरूपदिष्टप्रकरणसे तब ऊंचे में उठाये हुए जिह्वाग्रसे धारण करके वैश्वानरमें क्षेपण करना होता है, इसीका नाम यज्ञ है। यह यज्ञ, देव-उद्देश न करनेसे नहीं होता, फिर इसीसेही यश्वर विष्णु प्रसन्न होते हैं। जिस प्रकार कर्ममें-प्राणके जिस प्रकार चालन से (जो कर्मसीखनेके लिये ही गुरुकरण प्रयोजन है ) यज्ञश्वर प्रसन्न होते हैं, बही ही-“तदर्थ कर्म" है। उस “तदर्थ" कर्म छोड़ करके दूसरे प्रकारके कर्म करनेसे, (कूटस्थमें मनस्थिर तथा प्रतिकमलमें प्राणविन्यास न करनेसे, अर्थात् मन-प्राणमें मन न मिलानेसे ) प्राकृतिक जगत में कर्म डोर करके बंधा पड़नाही पड़ता है * इसीलिये आसक्ति त्याग करके (क्योंकि आसक्तिही कर्मबन्धन का हेतु) "तदर्थ" कर्म करना होता है, यह उपदेश किया गया ।।६॥ ___* जो साधक उस सुधाको घेश्वानर नामक जठराग्निमें आहुति दे सकते हैं, वह आहुति सर्व नाड़ियों में व्याप्त हो करके सर्व शक्तिको ( जो जो शक्ति षट् पद्मके प्रति पत्रमें है ) पुष्ट तथा प्रबुद्ध करनेसे साधकका शरीर लावण्यमय हो करके-खिलती हुई ज्योति निकल बाहर आती है। इस शरीरको ही विष्णु-मन्दिर कहते हैं, जहां ब्रह्मण्यदेव हरि विराजते हैं ॥९॥
* बन्धन । -जिस कम्मका फल भोग करना होता है वही बन्धन है। वह बन्धन ही प्राकृतिक आवरण है, वह आवरण स्थूल-सूक्ष्म भेद करके नाना प्रकारका है। स्थूल शरीर एक बन्धन है, इसको लेके आश्रय छोड़ करके शून्यमें रहा जा नहीं सकता, माध्याकर्षण-शक्ति करके पृथिवो में गिर पड़ना होता है। सूक्ष्म शरीर और एक बन्धन, इसके फिर भिन्न-कर्मसंस्कार-हेतु करके लघुगुरु-पृथकता है। इसको लेकरके भूमि छोड़ करके वायु मार्ग में जाया जा सकता है, किन्तु वायु मण्डलके पर पारमें जाया जा नहीं सकता,-तहां संस्कारानुयायी स्तरमें वा लोकमें बिचरण करना होता है, उससे उच्चतर स्तर विशुद्ध आकाश-मण्डलमें जाया जा नहीं सकता। साधारण मृत्युके पश्चात् प्रेतात्मा वायुभूत अवस्थामै नाना प्रकार करके इस वायु