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________________ तृतीय अध्याय १३३ .फलसे कर्मक्षय हो जाय करके जो अकर्म होता है, उसीमें परमपद प्राप्ति कराता है। इसीलिये उस त्यागी साज लेना अकर्मसे श्रेष्ठ है। कर्म-भीतर बाहर में प्राणवायुके गमनागमन प्रति शरीरमें होता ही है; उसको त्याग करके कोई शरीर रक्षाकर नहीं सकता। स्वभावके वशसे प्रत्येकको ही ऐसा करना होता है। इस स्वभावसिद्ध कर्ममें कौशल प्रयुक्त होनेसे ही एक अलौकिक नित्य आनन्द-वैभवका उत्पत्ति होती है। इसलिये श्री गुरुदेवने उपदेश दिया है कि, नियत हो के कर्म करना होता है दृढ़ताके साथ यथाकालमें नियम युक्त होकरके आत्मलक्ष्य करके प्राणचालन अर्थात् स्वाभाविक कर्ममें कोशलका प्रयोग करने का नाम ही "नियतं” कर्म है ॥ ८ ॥ यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः । तदर्थ कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ।। ६ ॥ अन्वयः। यज्ञार्थात् कर्मण: अन्यत्र ( यज्ञार्थव्यतीरिक्त कर्मेण इत्यर्थः ) अयं लोकः कर्मबन्धनः ( कामभिः आवद्धः भवति)। (अतः ) हे कौन्तेय ! (त्वं ) मुक्तसंगः ( सन् ) तदर्थ ( यज्ञनिमित्त ) कर्म समाचर ।। ९॥ अनुवाद। यज्ञार्थ बिना अन्य कम करनेसे इस लोक में कर्मबन्धन करके आबद्ध होना पड़ता है। अतएव हे कौन्तेय ! तुम अनासक्त होकरके यज्ञके लिये कम किया करो ।। ९॥ व्याख्या। यज्ञ अर्थे होम (हवन) अर्थात् देवोद्देश करके मन्त्रोच्चारण पूर्वक अग्निमें घृतादि क्षेपण काना। विष्णुही देवता हैं। भगवान स्वयं ही कहते हैं "अहम् श्रादिहि देवानां” इनहीसे "प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी” ; यही कूटस्थ पुरुष हैं। उत्-ऊद्धदेश अर्थात् कूटस्थ-लक्ष्य करनेका नाम उद्देश है। कूटके भीतर लक्ष्य स्थिर रख करके गुरुपदिष्ट विधानसे प्रतिचक्रमें आत्ममन्त्रके साथ प्राणाहुति देते देते ( जिसको प्राणयज्ञ कहते हैं, अन्तर्याग भी कहते हैं ) जब
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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