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श्रीमद्भगवद्गीता आयुक्षय करना पड़ता है, विश्राम-शान्ति वह नहीं पाता ;-वह "इन्द्रियाराम” अर्थात् इन्द्रियोंसे उत्पन्न जो अनित्य आराम (रमणासक्ति), उसको ही भोग करता है, आत्माका विमल आनन्द प्राप्त हो करके आत्माराम हो नहीं सकता ;-और वह "मोघ जीवति" अर्थात् व्यर्थ जीवन धारण करता है, क्योंकि विषय अनित्य है, इस हेतु करके वह जिसको अवलम्बन करता रहता है, वही क्षयको प्राप्त होता है; जिस लिये एकके क्षयमें और एक, उसके क्षयमें और एक, इस प्रकार करके उसको विषयसे विषयान्तरमें दौड़ना पड़ता है; जिसके लिये दौड़ता है, उस अक्षय आनन्द पाता नहीं, अतएव धिक्कार-जीवन वहन करते हुये काल कटाते रहता है ॥ १६ ॥
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्य न विद्यते ॥ १७॥ अन्वयः। तु ( किन्तु ) यः मानवः आत्मरति एव, मात्भतृप्तः च, श्रात्मनि एव सन्तुष्टः च स्यात् , तस्य कायें न विद्यते ॥ १७ ॥ - अनुबाद। किन्तु जो मानव मात्मामें ही रत हैं तथा आत्मामें ही तृप्त है और आत्मामें ही सन्तुष्ट रहते हैं, उनका कार्य नहीं रहता ॥ १७ ॥
व्याख्या। कार्य्य किसको कहते हैं ? मन जब इन्द्रियोंके साथ विषयमें जाता है, तब जिस प्रकार प्राण-प्रवाह बहता है, वही कार्य है; और मन जब विषय छोड़ करके आत्माकी तरफ जाता है, तब जिस प्रकार प्राणकी गति होती है, वही कर्म है। जो आत्माराम है अर्थात् जो आत्मज्ञानमें मतवाला हो करके जगत्को आत्ममय देखते हैं, उनका विषयज्ञान न रहनेसे, कार्य भी रहता नहीं। फिर "तु" शब्दसे समझा देता है कि उनके भेदज्ञान न रहनेसे, चक्र अनुवर्तन करनेका भी प्रयोजन नहीं होता * ॥ १७ ॥
द्वितीय अध्याय श्लोक ४६ देखो। विजानत. ब्राह्मण हो "मात्मरतिः", "आमतृप्तः" तथा "आमनि सन्तुष्ट:" हैं ॥ १७ ॥