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अवतरणिका योग्य है। परन्तु जो वस्तु इन समस्त जागतिक पदार्थों के सृष्टि-स्थितिनाशका कारण है, उसमें मनको संयुक्त करनेसे जो सुखका उदय होता है, उसका और नाश नहीं है; वह अनन्त और नित्य होनेसे 'उपादेय' है। इसीलिये योगीगण अपने शरीरके भीतर ही उस अद्वितीय वस्तु सर्वशक्ति कारणमें मनःसंयोग करनेको यत्न ( अभ्यास ) करते हैं।
वह सर्वशक्तिकारण अद्वितीय वस्तु ही “परमात्मा” है। वह इस शरीरमें कहां है, और किस प्रकारसे उसमें मनःसंयोग किया जाता है, तस्वदशी योगीन्द्रगण उसका भी निर्णय किये हैं। वह लोग देखे हैं कि, वह वस्तु सर्वव्यापी होनेसे भो मस्तिष्कके भीतर ब्रह्मरन्ध्रमें ही चतन्यमय स्वरूप विकाश है और प्रणव ही उसका वाचक है। उस ब्रह्मरन्ध्रमें उपस्थित होना होय तो, प्राणको अवलम्बन करके ब्रह्ममन्त्र प्रणवके साथ मेरुदण्डके भीतर भीतर मनको क्रमानुसार एक चक्रसे दूसरे चक्रमें उठाते उठाते भ्रमध्यमें लाकर स्थिर करना पड़ता है; उसके बाद मन किसी अलौकिक शक्तिसे प्राणके साहाय्य व्यतीत अनायाससे मस्तिष्कमें उठ जाकर ब्रह्मरन्ध्रमें प्रवेश कर सकता है,
और वहां पर उस सर्वशक्तिकारणमें संयुक्त होकर अनन्त ब्रह्मानन्दमें विभोर हो जाता है। यही अतिमृत्यु पद है; यहां आनेसे फिर जन्ममृत्युके बालोड़नमें नहीं पड़ना होता। इस आनन्दावस्थाको प्राप्त करनेके लिये यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि नामके आठ प्रकारके साधना वा अष्टाङ्गयोगका अभ्यास करने होता है। यह अष्टप्रकार साधन प्रायत्त होनेसे मन को प्राकृतिक चतुर्विंशति तत्स्वके भीतर जहां चाहे वहां संयत किया जा सकता है, उससे अणिमा, लधिमा प्रभृति सर्व प्रकार सिद्धि लाभ होती है उसीको विभूति कहते हैं । परिशेषमें उत्तम वैराग्य द्वारा सर्व विभूतिको त्याग करके ब्रह्मानन्दानुभव-अवस्थाका भी त्याग होनेसे