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सप्तम अध्याय
३१६ करती है, और इड़ा मुखमें प्रतिफलित हो करके चन्द्र वा शशि रूप धारण करती है। यह शशि सूर्य्यही यथाक्रममें इड़ा और पिङ्गलाका अधिपति, और यही दोनों ज्योतिष्क-मण्डलका प्रधान कह करके इनही के नामसे समुदय ज्योतिष्क-मण्डलको समझाता है। इन दोनोंकी जो प्रभा वा ज्योति, वह उस चिज्ज्योतिका अंश-विकाश कहके, भगवान् प्रभारूपसे इन सबका धाता है।
(३) "सकल बेदका प्रणव में हूँ"-सहस्रारसे मूलाधार पर्य्यन्त विस्तृत सुषुम्ना ही वेद वा शब्दब्रह्मका स्थान, इसलिये इनको स्वरस्वती ( स्वरके श्रादि ) कहा जाता है। यह वेद ऋक्, यजुः, साम, अथवेन् चार अंशमें विभक्त हैं (२य अः४५ श्लोककी व्याख्या देखो)। भगवान्के अहंत्व यहां प्रणव वा ओंकाररूपी; इसलिये प्रणव उनका वाचक है। यहां जो कुछ उच्चारित होता है, वह सबही उस प्रणवको
आभय करके; वह सब प्रणवका ही विलास है। इसलिये भगवान् प्रणवरूपसे वेदका धाता है।
(४) "आकाशका शब्द मैं हूँ”–भगवान्के अहंत्व, विशुद्ध चक्रमें शब्दरूपी। शब्दतन्मात्रासे ही आकाशकी उत्पत्ति है। इसलिये भगवान् शब्दरूपसे आकाशका धाता है ।
(५) "मनुष्यमें पौरुष मैं हूँ"-जिस शक्तिद्वारा इन्द्रियगण क्रिया करनेमें समर्थ, और मन-बुद्धि अपने अपने कर्ममें प्रवृत्त, वही पौरुष अर्थात् उद्यम, चेष्टा वा कार्य-प्रवृत्ति है। भगवानका अहत्व ही मूल कार्य-प्रवृत्ति स्वरूप है। जड़ और चैतन्यके संयोगसे जितना नर अर्थात् जीव ( क्योंकि श्रेष्ठके नाम ग्रहणसे सब प्राणीको ही सममाता है, कह करके नर अर्थमें जितना प्रकार प्राणी) सृष्ट होता है, सो सब मूलका--प्रवृत्तिका परिणाम है और उसीसे ही परिचालित है। इसलिये भगवान् पौरुष रूपसे नरका धाता है ॥८॥