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- श्रीमद्भगवद्गीता ज्ञानोदय होने के बाद सञ्चित कर्म कम्र्मीको छोड़ करके महाकाशमें मिल जाता है; भावी कर्म अनुष्ठित होनेसे कमलपत्रके ऊपर वाला जलवत् कम्मीको लिप्त कर नहीं सकता; और प्रारब्ध कर्म यह जो शरीर है, वह रहता है सही, परन्तु भस्मवत् हो जाता है --सर्व सिद्धी को द्वारा वह इस प्रकार प्रायत्ताधीन होता है कि, वह और कर्मीको अभिभूत नहीं कर सकता। कर्मभोग-जीवन-मरण, ज्ञानीका इच्छाधीन होता है ॥ ३७॥
नहि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत् स्वयं योगसंसिद्धः कालेलात्मनि विन्दति ॥ ३८ ॥ अन्वयः। इह ( तपोयोगादिषु मध्ये ) ज्ञानेन सदृशं पवित्रं न हि विद्यते। ..योगसंसिद्धः ( योगानुष्ठाने संसिद्धः योग्यतामापन्नः मुमुक्षुः ) तत् (ज्ञानं ) कालेन स्वयं आत्मनि विन्दति ( लभते ) ॥ ३८ ॥
अनुवाद। तपोयोगादिके भीतर ज्ञानके सदृश पवित्र करने वाला और कुछ भी नहीं है। योगानुष्ठान में योग्यता प्राप्त होनेसे, साधक काल प्रभाव करके अपने में आपही आप उस ज्ञानको लाभ करते हैं ॥ ३८॥
व्याख्या। ज्ञान ही मूल चैतन्याप्रकृति है, इसलिये यही ब्रह्मका स्वरूप विकाश है। विकाशमें विकार आते मात्र हो ज्ञानसे चौबीस तत्त्वोंकी उत्पत्ति होती है। इसलिये विश्वकी तुलनामें ज्ञान ही एक मात्र पवित्र है। तपोयज्ञ प्रभृतिसे चित्त शुद्ध होता है सही परन्तु ज्ञानयज्ञ न होनेसे ब्रह्मविद् नहीं हुआ जाता-मुक्तात्मा नहीं हुआ जाता; इस कारण करके ज्ञान पवित्र है। यह कह करके ज्ञान कर्मनिरपेक्ष नहीं है। कर्मयोगमें सिद्धि लाभ न कर सकनेसे ज्ञानयोग का अधिकारी नहीं हुआ जाता। कर्मयोग द्वारा विषय-विक्षेप-विहीन स्थिर धीर अवस्थामें कूटस्थमें अवस्थित होनेसे, तव ऐसा ही समय