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________________ २२५ चतुर्थ अध्याय नहीं, क्योंकि, कर्मक्षय न होनेसे खत्-असत् फल करके आबद्ध होना ही पड़ता है। वही बन्धन ही पाप है। ज्ञानका स्वरूप मालूम होनेसे, अन्तकरण-वृत्ति अशेष करके अन्तर्मुखी हो जानेसे, कर्मसमूहसंख्यामें जितनी अधिक हो, असंख्य होनेसे भी-आपही आप त्याग हो जाता है, अर्थात् ज्ञानविद् अज्ञानचक्रके ऊपर कर्मका अतीत स्थान में चित्त निवेश करके रहते हैं, इससे कर्म उनको स्पर्श कर नहीं सकता ॥३६॥ यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात् कुरुतेऽर्जुन । ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते तथा ॥३७॥ अन्वयः। हे अर्जुन ! यथा समिद्धः ( प्रदीप्तः ) अग्निः एधासि (काष्ठानि ) भस्मसात् कुरुते तथा ज्ञानाग्निः सर्वकम्माणि भस्मसात् कुरुते ॥ ३ ॥ ___ अनुवाद। हे अर्जुन । प्रदीप्त अग्नि जिस प्रकार काष्ठ सकलको भस्मसात् करती है, ज्ञानाग्नि उसी प्रकार समुदाय कर्मको भस्मसात् करती है ।। ३७ ॥ - व्याख्या। ज्ञानी सहस्रारमें उठकर बैठ रहनेसे, कर्मके अतीत होते हैं, कह करके, कर्म ज्ञानीको स्पर्श नहीं कर सकता; परन्तु फिर जब उतरके विषयके भीतर आते हैं, तब उनकी जिस प्रकार अवस्था होती है, वही इस श्लोकमें कही जाती है। कर्म तीन प्रकारके हैं। प्रथम, प्रारब्ध कर्म,-जिसने फल देना आरम्भ किया है, अर्थात जिसका फल यह शरीर है। द्वितीय, सञ्चित कर्म,-जिसका फल सञ्चय होता है, फल देना आरम्भ नहीं हुआ, पश्चात् फल देवेगा। तृतीय, भावी कर्म-जो कर्म अब तक अनुष्ठित हुआ नहीं, भविष्यत्में होवेगा। अग्निके सहारेसे काष्ठका जल-वायु अंश जैसे उड़ जाता है, केवल पृथ्वी अंश भस्म रूपसे पड़ा रहता है, वह भी बहुत ही हलका और सूक्ष्म, ठीक वैसे
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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