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श्रीमानवद्गीता का आमना सामना और संघर्ष ही साधनसमर हैं; और इसी साधनसमरका नाम क्रिया है।
क्रियाके प्रारम्भ कालमें ही निवृतिपक्षीय शम दमादि साधनाके अनुकूल वृत्तिसमूह वासनापटमें प्रतिलित होता है, यही दुर्योधनका पाण्डवव्यहदर्शन है।
"आचार्यमुपसंगम्य" द्रोण प्राचार्य हैं। इन्होंने ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर क्षत्रिय वृत्ति अवलम्बन कर कुरु पाण्डव दोनों पक्षोंको धनुर्वेदकी शिक्षा दी। काक (कौवा ) जैसे दो चक्षु रहने पर भी किसी एक चक्षुसे देखता है, दोनों चक्षुओंसे एक साथ देख नहीं सकता, इन्होंने भी वैसे ही दोनों पक्षोंके गुरु होकर भी एकही पक्षका अवलम्बन किया था। यह द्रोण हो संस्कारज-बुद्धि है। भले-बुरे सब प्रकारके कर्मही संस्कारमें परिणत होते हैं, इसलिये उससे जो बुद्धि उत्पन्न होती है, वह जीवको, क्या भला क्या बुरा, दोनों दिशाओं में दौड़ाती है; इसलिये वह संसारी और मुक्तिकामी दोनों पक्षोंकी गुरु है। यह बुद्धि सर्वतोप्रसारिणी होनेपर भी मार्जित अर्थात् निर्मल न होनेसे, वह संसारकी सीमामें ही आबद्ध रहती है, विरागकी और लक्ष्य रहनेसे भी वह उस ओर कार्यकारी नहीं होती; ग्रही द्रोणके कौरव पक्ष अवलम्बनका कारण है। क्रियाके प्रारम्भ कालमें साथककी दुर्योधनवृत्ति पांडववृत्तिसमूहको दर्शन कर, संसारभावकी प्रतिपोषकस्वरूप सांस्कारिक बुद्धि बलवत् रहकर जिसमें वैराग्यकी पोषक न हो, इसलिये चेष्टा करता है। यही आचार्यके समीप गमनका तात्पर्य है। ....
वचनं अब्रवीत्" - युक्तिपूर्ण वहुअर्थव्यञ्जक संक्षेप और हृदयग्राही वाक्यका नाम वचन है (इसका भावार्थ २०वें श्लोककी व्याख्यामें देखो )। इसलिये कहते हैं ॥२॥