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अष्टम अध्याय है, वही वासुदेव है )। ऐसा जो "मैं", उस “मैं” को 'मैं जानकर ( अर्थात मातृ-पितृ अंश यह शरीर 'मैं' नहीं, इस ज्ञानसे ) जो शरीर को त्याग करे वही 'मैं' हो जाता है अर्थात आत्मस्वरूप लाभ करता है। इसमें संशय करनेका कोई प्रयोजन नहीं;-यह बात सच
यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥६॥ अन्वयः। हे कौन्तेय ! अन्ते (अन्तकाले ) यं यं वा अपि भावं स्मरन् कलेवरं त्य नति, सदा तद्भावभावितः ( तस्य भावो भावनानुचिन्तनं, तेन भावितो बासितचित्तः ) तं तं ( स्मर्य्यमाणं भावं ) एव एति ( प्राप्नोति ) ॥ ६ ॥
अनुवाद। हे कौन्तेय ! सवंदा अभ्यास हेतु जिसके मन में जो भाव प्रबल होता है, वह अन्त कालमें उसी भावको स्मरण करते करते शरीर त्याग करता है, अतएव वह उसी भावनामय शरीरको ही प्राप्त होता है ॥ ६॥
व्याख्या। आयुः शेष होता है, पुनः मृत्यु आती है, यह जो सन्धि-समय है, इस समयमें जिस मनोवृत्तिसे जो शरीर (शेष निःश्वास ) त्याग करगे, वह उसी वृत्तिकी अनुरूप अवस्थाको पावेंगे। इसीलिये प्रति निश्वासके शेष अवस्था में उस तद्विष्णुका परमपद मन ही मनमें देखते देखते निश्वास त्याग करना उचित है। क्योंकि मैं तो नहीं जानता हूँ कि हमारा शेष निश्वास यही है वा नहीं। साधक को २१६०० बारके प्रत्येक बारमें ही हुंशियार होना चाहिये ॥ ६ ॥
तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्यं च ।
मय्यर्पितमनोवुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥७॥ - अन्बयः। तस्मात् सर्वेषु कालेषु मां अनुस्मर ( अनुचिन्तय ) युध्य च ( युद्धादिकं स्वधर्म कुरु ); मय्यपितमनोबुद्धिः ( मयि वासुदेवे अपितं मनः बुद्धिश्च येन सः त्वं, तथाभूतः सन् ) असंशयं मां एव एष्यसि ॥ ७॥