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अवतरणिका अखण्डमण्डलाकार-पद-मध्यगत विन्दु देख पड़ता है, वही कूट है। यह कूट अव्यक्त और चित्तावरणके संयोग-मध्यमें पुरुषके समसूत्र स्थल में स्थित है ( ४र्थ चित्र देखो) इस कूटको भेद करनेसे प्राकृतिक
आवरण समूह भेद हो जाता है। उस कूटके बहिर्भागमें अव्यक्तसंक्रम स्थलमें “कोटी सूर्यप्रतीकाशं चन्द्रकोटी सुशीतलं" जो चिज्ज्योतिका विकाश होता है, वही विवस्वान्-सविलमण्डल है, और भीतरी तरफ अखण्डमण्डलाकार चन्द्रमण्डल, परिदृष्ट होता है। महत्तत्त्व वा चित्तावरणके बाद वह जो आकाश है, उसको चिदाकाश कहते हैं, उसीको अव्यक्त भी कहते हैं। अव्यक्त शब्दसे अन्धकारको नहीं समझना, यह प्रकाशसे परिपूर्ण है; इसके अनन्त परिवर्तनशील विलासको वर्णन करके शेष नहीं किया जा सकता; जो थोड़ा बहुत कहने जाओगे वही नहीं हो जायगा, उसका कुछ भी ठीक ठीक समझा नहीं जाता; यही माया * है। इन्हींसे सृष्टिविकारका प्रारम्भ होता है इसीसे यह मूला प्रकृति है। इसका नाम असंख्य हैं परन्तु किसी नामसे इसका स्वरूप व्यक्त नहीं होता; इसलिये इसको अव्यक्त कहा जाता है। इस अव्यक्त पर्य्यन्तमें जो कुछ है वह सब असत् है। उस असतके ऊपर जो पुरुष है, वही सत्, और परागति
* मा=नास्तिवाचक शब्द, या=अस्तिवाचक शब्द; इन दो अर्थ के मिलानेसे जो होता है वही माया है,-निर्णयके अतीत पदार्थ । भगवान्मे स्वयं कहा है "मम माया दुरत्यया"। युद्ध करके मायाको जय किया ( मायाका स्वरूप अवगत हुआ) नहीं जा सकता, चण्डी ( दुर्गापाठ ) में वही दिखाया गया है। मायाको अतिक्रम करने वा जय करनेका उपाय भगवान्ने कहा है-“मामेव प्रपद्यन्ते माया मेतो तरन्ति ते"। अव्यक्तका स्वरूप निर्णय करनेकी चेष्टा न करनी चाहिये, एकदम पुरुषपर लक्ष्य स्थिर करना होता है।