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साधन प्रकरण
२५ है। पन्द्रहवें अध्यायका उत्तम पुरुष यही है, क्योंकि यह घर और अक्षरके अतीत है। मायामुक्त चैतन्य अर्थात् कूटस्थ-चैनन्य वा ईश्वर को अक्षर कहते हैं, और परा अपरा प्रकृतिको क्षर कहते हैं [५म चित्र देखो]। लययोगसे जब पुरुषका पुरुषत्व मिट जाता है, सत् और
५म चित्र
MMENबखान वित्त सरतल
धामा
माया। (इस मायामुक्त
चैतन्यका नाम ईश्वर है)। अविधा।
वा अपरा प्रकृति। (इस अविद्याभुक चैतन्यका नाम पराप्रकृति घा जीव है।
( पञ्चभूत मिलाके) चौबीस तत्त्व होते
असत् मिलके युक्त होके एक हो जाता है, तबही "सदसत् तत्परं यत्" हो जाता है, अर्थात् एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म हो जाता है [४र्थ चित्र देखो]।
योगमार्ग और साधन प्रकरण सम्बन्धमें यह जो चित्रके साथ विवरण दिया गया, इसीसे प्रथम अभ्यासीगण इस विषयमें स्थूल स्थूल धारणा कर ले सकेंगे। इससे विशदभावमें समुदय विषयको