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षष्ठ अध्याय
२६५ हैं (आत्मभावमें लक्ष्य करते हैं )। कृष्ण ही गुरु हैं, भक्तजनों के पापादि दोष कर्षण करते हैं-पश्वात् भक्तको खींच लाकर निर्वाण-पद (मुक्तिपद) में मिला देते हैं, इसलिये उनका एक नाम कृष्ण है ॥ ३३ ॥३४॥
श्रीभगवानुवाच । अशंशयं महाबाहो मनो दुनिग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥ ३५ ॥ अन्वयः। श्रोगवान् उवाच । हे महाबाहो! मनः अपंशयं (निश्चयमेव ) दुनिग्रहं चलं; तु ( तथापि ) हे कौन्तेय ! अभ्यासेन वैराग्येण च गृह्यते ॥ ३५ ॥
अनुवाद। श्रीभगवान् कहते हैं, हे महाबाहो ! मन जो चंचल और दुनिग्रह, जिसमें कोई सन्देह नहीं; तथापि हे कौन्तेय ! अभ्यास और वैराग्य द्वारा मनको निग्रह किया जा सकता है ॥ ३५॥
व्याख्या। ३३१३४ वा श्लोकमें शिष्य क्रियायोग अनुसार अपना अभिज्ञता जिस प्रकार प्रकाश किया, वह जो ठीक है, उसमें शिष्यको उत्साह देने के लिये भगवान कहते हैं-हां, सच है; मन अति चंचल और दुर्निग्रह ( वशमें लाना बड़ा कठिन ) है, इसमें कोई सन्देह नहीं; तथापि किन्तु मन अवश्य नहीं है, वश किया जा सकता है; इसका उपाय भी है; वह उपाय और कुछ नहीं-अभ्यास और वैराग्य है। अभ्यास तथा वैराग्यसे ही मन निगृहीत होता है;-'अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः' । ___ अभ्यास किसको कहते हैं ? कि 'तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यास' अर्थात् यम-नियम आसन-प्राणायामादिके अनुष्ठानसे चित्तको यत्न और उत्साहपूर्वक बार-बार एकाग्र करके स्वरूपमें स्थिर करनेकी चेष्टा का नाम अभ्यास है। यह अभ्यास यदि दीर्घकाल श्रद्धा सहकार . निरवच्छिन्न रूपसे सर्वदा सम्पन्न किया जाय तो द मानीत.