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पचम अध्याय
२५३, और परिणाममें दुःख उत्पन्न करता है, कहा गया । और भी, विषय भोगमें आसक्त होनेसे मनका आध्यात्मिकी (आत्माभिमुखमें उठने की) शक्ति निस्तेज होता है, अर्थात् जिस शक्ति द्वारा परमात्माको अनुभव किया जाय, और जिसके तेज करके चित्तमें विषयके स्पर्श न होनेसे अन्तराकाश परिष्कार रहता है, वही शक्ति घट जाती है, अतएव अन्तराकाश ढका पड़ता है। किन्तु बाहर के विषय भोगसे विरत होनेके बाद अन्तरमें जिस सुखका उदय होता है, उस सुखका और शेष नहीं, अनन्तकाल भोग करनेसे भी उस सुखसे विकार उत्पन्न होता नहीं। विवेकी पुरुष इसीलिये विषय सुखमें आसक्त होते नहीं ॥२२॥
शक्नोतीहैव यः सोढु प्राक् शरीरविमोक्षणात् ।
कामक्रोधोद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः॥ २३॥ अन्वयः। यह नरः इह एव ( जीवन्नेव ) शरीरविमोक्षणात् प्राक् (आमरणं ) कामक्रोधोद्भवं वेगं सोलु ( सहितुम् ) शक्नोति, सः युक्तः सः सुखी ॥ २३ ॥
अनुवाद। शरीर त्यागके पूर्व समय पर्यन्त जो मनुष्य इह लोकमें काम और ... क्रोधका वेग सहन कर सकता है, वही पुरुष युक्त-वही पुरुष सुखी है ।। २३ ॥
व्याख्या। सुख ही मनुष्यका लक्ष्य है। उसके भीतर विषयसुख अनित्य और दुःखकर, किन्तु आत्मानन्द-सुख अक्षय है। अतएव आत्मानन्द-सुख ही परम पुरुषार्थ है। परन्तु काम और क्रोध इस परम पुरुषार्थ लाभके अन्तराय ( विघ्न ) है। विषयकी मोहिनीशक्ति वा आकर्षण ही काम है; यह काम प्रतिहत (बाधा प्राप्त ) होनेसे ही क्रोधमें परिणत होता है (३ य अः ३७ श्लोक देखो)। काम क्रोध साधकको भीतर बाहरमें आक्रमण करते हैं। जो मनुष्य जाग्रत अवस्थामें विषय-संश्रवमें आके मृत्युके पूर्व पर्य्यन्त शरीरके सुस्थ, असुस्थ, सब अवस्थामें ही भोगके विषयमें अनुरक्त अथवा भोगवाली..