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श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। वशी होनेके पश्चात् साधक चित्त क्षेत्रमें उठ जायके । प्रभु (प्रकृष्टरूपसे स्थित ) होते हैं। तब एकमात्र चिन्तन-वृत्ति वर्तमान रहता है, और वह निरहंकारत्व हेतु सर्वज्ञ होते हैं। प्राकृतिक २४ तत्त्वके भीतर चैतन्यका सर्व प्रधान अवस्था यही है, इसलिये वह प्रभु ( ईश्वर ) हैं। इस समय साधक अपनेको देखते हैं कि, और वह प्रकृतिके अधीन नहीं हैं, प्रकृति ही उनके अधीन है, उन्हींको अवलम्बन करके प्रकृति अपना खेल खेल रही है। सत्यादि चतुर्दश * भुवनमें जो कुछ कर्तृत्व, कर्म, और कर्मफल-सयोग होता है, उसे वह कुछ नहीं करते, वह उन सबका साक्षी मात्र हैं; प्रकृति उनहीको
आश्रय करके वह सब कर रही है। यही प्रकृति ही उनका स्वभाव अर्थात् अपना भाव वा अवस्था है। यह स्वभाव वा अवस्था दो प्रकारका स्वाधीन और अधीन । जब तक चैतन्यसस्वा अहंक्षेत्र पार न होके जीवभावमें रहते हैं, तब तक वह स्वभाव स्वाधीन, चैतन्य उनके गर्भ में अधीन है, इस अवस्था में ही प्रकृति जननी, जीव पुत्र है, जब चतन्यसत्वा ईश्वरभावमें रहते हैं तब वह स्वभाव अधीनचैतन्य उसके ऊपर प्रभुत्व करते हैं; इस अवस्था में ही प्रकृति रमणी, ईश्वर स्वामी है। साधन बल करके प्रभु पदमें उठ बैठनेसे ही “जननी रमणी, रमणी जननी" वाक्यके सार्थकता समझा जा सकता है। प्रभु अवस्थामें क्रियाशक्ति लीन हो जाता है, एक "मैं ही मैं" मात्र भाव व्यतीत और कुछ नहीं रहता। यही है म श्लोकके जितेन्द्रिय अवस्था ॥ १४॥
* मूलाधारादि सहस्रार पर्यन्त सात चक्र सहस्वर्ग और पगके बृद्धांगुष्टके अग्रभाग और दो गांठ पालि गांठ जंघागांठ घुटना ( उरुकटि-सन्धि ) और कटि (कमर )-सातस्थान सप्तपाताल है। इन सबको क्रिया गुरुपदिष्ट साधनामें पाया जाता है ॥ १४ ॥