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पंचम अध्याय नादत्ते कस्यचित् पापं न चैव सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ १५॥
अन्वयः। विभुः ( भूत्वा सः ) कस्यचित् पापं न आदत्त ( गृह्णाति ) न च एव सुकृतं ( आदत्तं )। ज्ञानं ( अहंवृत्तिरपि ) अज्ञानेन ( वृत्ति विस्मरणेन ) भावृतं ( भवति ); तेन ( हेतुना ) जन्तवः ( चित्तवृत्तय उत्पत्तिस्थितिनाशशीलाः ) मुह्यन्ति (निरुद्धाः भवन्ति ॥ १५ ॥
अनुवाद। विभु किसीका पाप ग्रहण करते नहीं, सुकृति भी ग्रहण करते नहीं; अज्ञानसे ज्ञान आवृत्त होता है, इसलिये जन्तु सब मोहक प्राप्त होते हैं ।। १५॥
व्याख्या। प्रभु-अवस्थाके बाद साधक विभु होते हैं, अर्थात् विश्वव्यापी होके चिन्मात्रावशिष्ट होते हैं। यही है गुणातीत अवस्था-शिवपद; ७ वा श्लोकके सर्व भूतात्म-भूतात्मा अवस्था भी यही है। यह भी एकठो अवस्था है, क्योंकि इस समय चैतन्यसत्त्वा चित्त वा महत्तत्त्वके बाहर जानेसे भी अव्यक्त और चित्तके सक्रमस्थानमें रहनेसे थोड़ासा सस्पर्श दोष रहता है। इस समय पाप
और सुकृति अर्थात् प्रवृत्ति सब मिट जाता है, किसीका ग्रहण नहीं रहता; क्योंकि चैतन्य माया भुक्त अवस्थाको त्याग करके मायातीत हो जानेसे, मायिक और प्राकृतिक क्रिया समूह लीन हो जाती है । यह गुणातीत विभु-अवस्था अनतिविलम्बमें ही लयको पाता है; तब सर्व अवस्थाका ही शेष होता है,-अवस्थाविहीन अवस्था-जिसको व्यक्त किया जा नहीं सकता, समझना और समझानेके अतीत सोई अव्यक्त-अवस्था-अज्ञान-अवस्था-सब-मिट जाना अवस्था आता है। यह विभु-अवस्था पर्य्यन्त ही ज्ञान टिकता है, और उसके ऊपर जा नहीं सकता। उस सब-मिटना अवस्थामें ज्ञान भी मिट जाता है। उस अज्ञान-अवस्था . आनेसे 'जन्तवः” अर्थात् उत्पत्तिस्थिति