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श्रीमद्भगवद्गीता हैं। देखते हैं; तीन अवस्थाओं का एक साथ योगायोग है, इस करकेही यह गीता रूप आत्मज्ञानका फौवारा उठा है। वह तीन अवस्था-देश, काल तथा पात्रका समावेश है
(१) देश है --धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र में दो पक्षके मध्य-स्थान । साधक कर्मका श्राश्रय करके सुषुम्नाके भीतर प्रवेश करने पाये हैं, इसलिये इस देशका समावेश हुआ है। __ (२) काल है-- "अद्य" अर्थात् युद्धका प्रथम दिन युद्ध प्रारम्भ होनेके ठीक पूर्व समयमें, जब साधक कूटस्थ-चैतन्यके सामनेमें स्थिर धीर भावमें रह करके प्रत्यक्ष करते हैं, और उसी चैतन्य-ज्योतिके प्रवाह सम्पूर्ण रूप करके साधकमें ही आ पड़ा है।
(३) पात्र है-साधकका भक्त तथा सखा भाव । ईश्वरके प्रति एकानुरक्तिका नाम भक्ति और समप्राणत्वका नाम सखा है। आज साधक "शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्" कहके सकल अभिमान दूर करके गुरुपदमें सम्पूर्ण रूपसे आत्मसमर्पण कर चुके, इसलिये
आत्मचैतन्यमें उनके परानुराग प्रकाश पाये हैं, अतएव वह भक्त हैं; तथा क्रियायोगमें निश्वास-प्रश्वास सूक्ष्म सीधे और अभ्यन्तरचारी हो के समान परिमित होनेसे अर्थात् प्राणमें समता * आनेसे, वह सखा हैं। साधकका आज इस तीन अवस्थाका समावेश हुआ है, कह करके ही साधक इस ज्ञानको जान सकते हैं। यह अवस्था न होने से कदापि कोई इसको जान नहीं सकता। इसलिये इसको ___* जब निश्वास-प्रश्वासकी गति और परिमाण बहुत कमसे भी कम और सूक्ष्म हो जाय छोटी बड़ी न रहे; मन बिना आयास करके मकड़ीके सूती सदृश वारिक सुषुम्ना नाड़ीको धरके धीरे धीरे उठना उतरना कर सके, शरीर तथा मनमें किसी प्रकारका उद्वेग वा यातना न रहे, वरंच एक अव्यक्त आनन्दका संचार होता है, वही प्राणकी समता अवस्था है। यह अवस्था क्रिया करके प्राप्त होके आपसे आप समझना पड़ता है, यह समझाया नहीं जाता ॥ ३ ।।