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श्रीमद्भगवद्गीता नीचे उतर पाकर संसार बीज नष्ट करनेके लिये अग्रसर होते ही "विषम" अर्थात् असमान अवस्थाका चरम विकाश होता है। तब "मैं" "मेरा” “पर” इन तीनोंका ज्ञान प्रबल होकर, धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्रमें चरम क्षत्रिय-बल प्रकाशकर रजोगुण खिल आता है; उसीसे "मेरा” की रक्षा करने और "पर" के नष्ट करनेका वेग तीव्रतम होता है, किन्तु अनवधानतासे दूरत्यया मायाके चक्रमें पड़नेसे ही हृदयमें अर्थात् कूटस्थमें दृश्य और द्रष्टाके ठीक बीचमें सूति सरिसे फूट फूट गोल गोलाकार सीधी टेढ़ी रंग बेरंगके न जाने कितने गिज बिज करते हुये देखनेमें आते हैं, उसी का नाम "कश्मल” है। उस समय बुद्धि अविद्याके वशमें आकरके भ्रममें पड़ती है, इसलिये “पर" को अपना समझ मन मान लेता है। मनका यह विकृत भाव भी "कश्मल" है । कश्मल-अनार्यसेवित, अस्वये और अकीर्तिकर है।
"अनार्यसेवित"। -जो साधक मनका सूक्ष्मावलम्बी कर चैतन्यमय जगत्में समदशी होते हैं, वही आर्य्य हैं। और जो जड़जगत्में जड़त्वके झमेले में पड़कर समताको खोते हैं, वही अनार्य हैं । मायाके खिंचावमें पड़नेसे ही विषमतामें पहुँचकर अनार्य होना पड़ता है, तब अन्तराकाश कश्मलमें ढक जानेसे कश्मल ही कश्मल दर्शनमें आते हैं, अर्थात् केवल कश्मलकी ही सेवा करनी पड़ती है।
"अस्वयं"। -स्वर्गस्+व+र+ग; "स" = सूक्ष्मश्वास, "व" =शून्य, 'र" =तेज, "ग" =गति। सूक्ष्मश्वासके शून्य होनेके पश्चात् जो तेजोमयगति होवे, वही स्वर्ग अर्थात् आत्मज्योति-प्राप्ति है। "य" ( ष्यण ) प्रत्यय करनेसे ही होता है स्वर्ग्य अर्थात् आत्मज्योति-प्रापक। वह आत्मज्योति-प्राप्ति जिसमें नहीं होता है, वोही अस्वयं (थ-अभाव+स्वयं) है। मायाके खिंचावमें पड़नेसे ही अधोगति होती है, तत्क्षणात् कश्मल आ पहुँचता है, और स्वर्ग