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द्वितीय अध्याय (आत्मज्योति ) दिखाई नहीं देती, क्रमशः अधिकतर तमसाच्छन्न होना पड़ता है। इसलिये कश्मल अस्वर्य है। ___ "अकौतिकर"। -कर्मकी सिद्धि हो जानेके पश्चात् जो ख्याति होती है, उसीका नाम कीत्ति है, जैसे संसार ग्रहण करनेसे संसारी, धनको प्रायत्ताधीन करनेसे धनी, ज्ञान लाभ करनेसे ज्ञानी, विज्ञान जाननेसे वैज्ञानिक, योगमें अभ्यस्त होनेसे योगी, कर्मकी परिसमाप्ति करनेसे सन्न्यासी इत्यादि। कर्मकी परिसमाप्ति ही ब्रह्मत्व है; किन्तु परिसमाप्तिके पूर्वमें इसके भिन्न भिन्न स्तर हैं, उन उन स्तरोंको एक एक कीतिका स्थान कहते हैं। जो साधक समस्त स्तर अतिक्रम कर चरम ऊर्द्ध स्तरमें पहुंचे हैं, वही कीर्तिमान हैं, वही जीवन्मुक्त हैं, विदेह-मुक्ति उनके “हस्तामलकवत्" आयत्त (इच्छाधीन) हैं। जो साधक वीर हैं, किसी प्रकारसे जो मायाके वशमें नहीं पाते, दश दिशामें मायाका खिंचाव रहनेसे भी जो अपना उजान ( उर्द्ध) गति नहीं छोड़ते, वही पुरुष अवाधतः कीति शिखरमें उठते रहते हैं। कदाचित् शिखरमें पहुँचनेके पूर्व समयमें भी कालके वशमें उनका शरीर-त्याग हो जावे, तब भी उसके लिये उनको अवसन्न होना नहीं पड़ता, उनकी साधनलब्ध आकर्षणी शक्ति तब अति प्रबल हो करके विद्युत्-वेगसे निमिष-मध्यमें उनको सकल स्तर पार कराके दूर ऊपरमें ले जाता है, वह भी अनन्तजीवन पाते है, अर्थात् अपुनरावृत्तिस्थिति लाभ करते हैं। इसीलिये प्रवाद है कि, “कीतिर्यस्य स जीवति”। किन्तु जो वीरत्व-परिशून्य होकर मायाकी खिंचाईसे सुजान गति नहीं ले सकते, अटक पड़ते हैं, उनके सामनेमें कश्मल श्रा करके चिदाकाशको कुयासाकृत (कुज्झटिकावृत ) करके दिव्य मानस दृष्टि ढांक देती है। तब वह राहभूले दिशाभूले बनकर मायाके श्रावत में पड़के चक्र खाते रहते हैं, उसे फिर कीतिलाभ नहीं होती, अकीति ही होती है, क्योंकि निष्फल कर्म तथा असत् कर्मका नाम ही