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श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। जब चित्त एकमात्र श्रात्मा छोड़ करके और किसीकी चिन्ता न करेगा, तब ही अध्यात्मचित्त होवेगा। मनहीं मनमें * स्वरमें आत्म-मन्त्र उच्चारण करनेसे, तथा कर्णको उसी मन ही मनमें उच्चारित शब्दमें एकाग्र करके अर्पण करनेसे, आत्मचिन्ता करनो होती है, तब और कोई विषय मनमें स्थान नहीं पाता।
साधन-समर-क्षेत्रमें ममताके वश विषादग्रस्त शिष्यको आत्मस्वरूप, सांख्ययोग, वेद, ज्ञान, तथा ब्राह्मी स्थिति-इस सबको एक एक करके समझाय देके कर्म करनेका प्रयोजन दिखलाके उसी कर्म करनेके उपाय समूहको शिष्यके मनमें बद्धमूल कर देनेके लिये, इस एकमात्र श्लोकमें संबद्ध किया है। सो उपाय समूह ये हैं
(१) “मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य'-कर्म "हम" हीमें अर्पण करना पड़ता है। "हे नाथ ! यह मैं क्रियामें प्रवृत्त हुआ हूं, परन्तु किस प्रकारसे प्राणचालन और मन्त्र उच्चारण करना होता है, इसका रहस्य कुछ समझता नहीं, जानता भी नहीं; तुम दया करके जो करनेको है, वह मुझसे करालो"। इसी प्रकारसे मनका अभिमान त्याग करके, मनमें कत्र्तृत्व न रखके प्राण की स्वाभाविक गतिका आश्रय करके, गुरूपदेश जैसे समझा हुआ है, उसी तरहसे सुषुम्नाभार्गमें प्राणन्यास करना चाहिये ऐसा होनेसे ही "हममें कर्म सन्यास होता है।"
(२) "निराशीः”।-साधारणतः मनुष्य दिनकी श्रान्ति दूर करने के लिये जैसे सब चिन्ता छोड़ करके रात्रिमें निद्राके लिये तैयार होते हैं,-मनमें सचेष्ट चिन्ता कुछ भी रहती नहीं, रखते भी नहीं; क्रियाके पूर्व में ठीक उसी प्रकार मनको विषय-चिन्तासे रहित करके क्रियामें प्रवृत्त होनेसे ही "निराशी" हुआ जाता है।
• एक, दो, तीन, चार, पाँच, गिननेमें जितना समय लगता है, एक अकम्पन. आत्ममन्त्र उतना समय लेके उच्चारण करनेसे आयत स्वरमें उच्चारण होता है ॥३०॥