SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 361
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२२ श्रीमद्भगवद्गीता अर्थात् जो बल रहनेसे मनुष्य भोगके विषयके संसर्गमें आकरके भी भोग में अनुरक्त वा आग्रहान्वित नहीं होते, अनासक्त भावसे स्थिर रह सकते, शरीर और मनमें चंचलता तथा उद्वेगका उत्थान होने नहीं देता, वही बल आत्मबल वा भगवत् सत्त्वा है । इसलिये बलवान के वैसा बल वह है । अतएव भगवान् बल रूपसे बलवानोंका धाता है । (१४) 'धर्माविरुद्ध काम मैं” । - संकल्प - विचार - अनुभूतिचिन्ता, अन्तःकरणके ये चार वृत्ति जिस अवस्था में पूर्ण विकशित हो करके आत्मतत्त्व प्रत्यक्ष करता है, उसी अवस्थाका नाम धर्म है। जो काम इस धर्म के अविरोधि, अर्थात् जिस काम भोगसे इस धम्म से विच्युत होने नहीं होता, अर्थात् जिस प्रकार आकांक्षा और विषय भोग करनेसे उस अवस्थासे भ्रष्ट हो करके आत्महारा होने नहीं होता, वही धर्मके अविरोधि काम है; वही काम भगवत् सन्दवा है । "युक्ताहारविहारस्य" इत्यादि श्लोक मता में सात्विक आहार विहार, और गार्हस्थ्य - ब्रह्मचर्थ्यानुष्ठानसे यथाशास्त्र धर्मपत्नीमें उपगत होना प्रभृति ही धर्माविरुद्ध काम है । भगवान्‌के अहंत्व वा चितशक्ति उस धर्म्मगत कामस्वरूप से ही विश्वके धाता है ॥ ११ ॥ "" ये चैव साविका भावा राजसास्तामसाश्च ये । मत्त एवेति तान् विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥ १२ ॥ अन्वयः । सात्त्विकाः ( शमदमादयः ) राजसाः ( हर्षदर्पादयः ) तामसाः च ( शोकमोहादयः ) ये च ये च एव भावा: ( मनसः विकाराः), तान् मत्तः एव ( जायमानान् ) इति विद्धि; तु ( किन्तु ) अहं तेषु न (बतें, भवामि इत्यर्थः ), ते मयि ( ते तु मदधीनाः सन्तः मयि वर्त्तन्ते जोववत् तदधीनः न इत्यर्थः ॥ १२ ॥ अनुवाद | सात्विक, राजस और तामस - ये जो तीन प्रकारके भाव हैं, उन सबको हमसे ही उत्पन्न जानना; किन्तु मैं इन सबके भीतर नहीं हूँ, वे सब हम में हैं ॥ १२ ॥
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy