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द्वितीय अध्याय भोग वा शरीर-धारण बिडम्बना मात्र है, जैसे जिह्वाके ऊपर कांटा जैसा निनवाँ हो जाय तो स्वाद लेनेकी शक्ति न रहनेसे सुखका भोजन जैसे दुःखमय होता है, वैसे ही।” (गुरून् गौरवे बहुवचन )॥५॥
न चतद्विद्मः कतरन्नौ गरीयौ यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः। ... यानेव हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ॥ ६ ॥
अन्वयः। यत् वा जयेम ( वयं जेष्यामः) यदि वा नः (अस्मान् ) जयेयु: ( एते जेष्यन्ति ), ( एतद्द्वयोर्मध्ये ) कतरत् (किं नाम ) गरीयः (अधिकतरं भविष्यति ) एतत् च न विद्मः। यान् एव हत्वा न जिजीविषामः ( जीवितुन इच्छामः ) ते धात राष्ट्राः प्रमुखे ( सम्मुखे ) अवस्थिताः ॥ ६॥ ... .
अनुवाद : यदि हम सब जय लाभ करें, यदि वह सब हम लोगोंको पराजय करें, इन दोनोंके बीचमें कौन हम लोगोंके लिये गुरुतर है, यह भी समझ नहीं सकते। जिन सबको वध करके जीने की इच्छा नहीं करता, वही धार्तराष्ट्रगण ही सामने खड़े हैं ॥ ६॥
व्याख्या। इस प्रकार भावनाके पश्चात् पुनः भावना होती है,-"भला, कौन अच्छा है ? प्रकृतिके वशमें रहना अच्छा, कि प्रकृतिको वशमें करना अच्छा, समझ तो आता ही नहीं! प्रकृतिके बशमें रहने से संसार-बीज नष्ट नहीं होता, फिर प्रकृतिको वश करने से विषय-भोग नहीं रहता;-जिन सबको लेके विषय-भोग करूगा-जिन सबको नष्ट करके जीता रहने में कोई फल न रहनेसे जीनेकी इच्छा होती ही नहीं, वही सब मानसिक वृत्ति समूह सामने खड़ी हैं ! अब क्या करूं!!" ॥ ६ ॥