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________________ 388 श्रीमद्भगवद्गीता शरीरके प्रत्येक अणुके संयोगको पुष्टि देकर पुनराय सहस्रारका मूल त्रिकोणमें उठ जाता है। ऐसे बारंबार जाना आना होता रहता है। इस अवस्थामें आ पहुंचनेसे साधकका अपक्षय शून्य हो जाता है। इस अपक्षय-शून्यताका नाम ही परिणाम-शून्यता है। यह परिणामशून्यता जिसमें है, वही अपरिणामी है। जो अपरिणामी है वही सत् , ब्रह्म, वा “मैं” हूँ। अब साधक ! समझ लो “अहंक्रतुः" वाक्य का अर्थ क्या है? "अहं यज्ञः”। इस भादान-प्रदानको ही यज्ञ कहते हैं, क्योंकि सर्व प्रकार यज्ञ जिसको आश्रय करके रहता है, वही विष्णु है (विष+ ण+3 ) / विष = व्याप्ति वा व्यापन है; ण-निर्गुण, उपञ्चदेवसमष्टि, अर्थात् शिव, शक्ति, गणेश, विष्णु, सूर्य-इन पांचोंको गलाकर एक कर देनेसे पञ्चदेव समष्टि होती है। इस अवस्थामें सब एक हैं, किसी गुणकी क्रिया नहीं रहती,-जैसे चीनी घोरा हुआ इक्षुका रस सबमें ही सब व्याप्त हो रहा है इस करके, विश्वव्यापक चैतन्य आत्मा ही विष्णु है। इस शरीर रूप विश्वमें वह आदानप्रदान रूप पुष्टि-क्रिया ही पालन है। जिस चतन्य-सत्त्वासे वह पालन सम्पादित होता है वही विष्णु है; वही विष्णु यझेश्वर है, और इसलिये वह यज्ञ भी मैं हूं। "अहं स्वधा"। स्वधा अग्नि देवताकी पत्नी है। अग्निका और एक नाम तेज है। यह तेज सोहागिनी शक्ति भी “मैं हूँ। यह अवस्था अच्छी तरहसे व्यक्त करनेकी युक्ति नहीं है। साधक ! समझ लो, जीवत्वसे ब्रह्मत्व लेनेके लिये चलो तो चित्तके ऊपर दिशामें उठने के समय जो महाशक्ति तेजकी सहायता करती है, वही स्वधा है। “स्व” शब्दमें अपना; और एक जगहसे चलना प्रारम्भ करके चलते चलते तदाकार और एक विश्राम भूमिकामें उपनीत होनेका नाम 'धा' है, जैसे गोतका सम। मैं जो "मैं" से सृष्टिसुख भोग करनेके लिये
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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