________________ 412 श्रीमद्भगवद्गीता प्रबलतर हो पाती है, उसमें उस मण्डल मध्यवत्ती हिरण्मय पुष बिना और किसीका प्रहण नहीं होता, एकमात्र उसीमें एकानुक प्रकाश पाता है। यही "मद्भक्त" अवस्था है। स्थिर अचञ्चल दृष्टिके द्वारा ताकते रहनेसे वह पुरुष प्रसन्न होते हैं, और उनकी अनन्त महिमा खिल उठती है। इस प्रकार स्थिर दृष्टिसे ताकते रहना ही "मद्याजी' अवस्या है। पश्चात् जैसे किसी एक पदार्थको एक रष्टिसे बहुत देर तक देखते देखते दृष्टि विलोप होकर क्षण भरके लिये अपने को भूल जाने पड़ता है, बाद फिर जब चमक टूट जाती है तत्क्षणात् उस पदार्थको देखनेमें आता है, ठीक इसी प्रकारसे उस मद्याजी अवस्थामें हिरण्मय पुरुषको एक दृष्टिसे देखते देखते तन्मय होकरके अपनेको भी भूल जाने पड़ता है, पुरुषको भी नहीं देखा जावा; इस प्रकार बारंबार होता है, साधनामें यह जो आत्मविस्मृति और स्फुरण अवस्था है, यही “नमस्कार" है। वह पुरुषही अपरिणामी है, वही पराकाष्ठा और परागति है। इस समय एकमात्र वह पुरुष ही आश्रय होनेसे, इस अवस्थाको “मत्परायण” अवस्था कहते हैं। इस अवस्था के परिपाक होनेसे जब और प्रदर्शन नहीं आता, परन्तु शून्यदृष्टिके सदृश उनमें ताकता मात्र रहता हूँ, अथच बोण्य बोधन नहीं रहता, इस प्रकार क्या जाने कैसे एक भाव होता है; वहो "युक्त" अवस्था है। इस अवस्थामें बोध्य बोधन न रहनेसे भी, दोनोंके भीतर थोडासा प्रभेद रहता है। पश्चात् वही प्रभेद मिट जानेसे दृश्य द्रष्टा मिलकर एक हो जाते हैं, वही एकमात्र अपरिणामी पुरुष "मैं” मात्र रहते हैं। इसीको ही “मैं”-पाना ( प्राप्त होना ) कहते हैं // 34 // इति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसम्बादे राजविद्याराजगुह्ययोगो नाम नवमोऽध्यायः