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चतुर्थ अध्याय
२११ अनुवाद। जो यदृच्छा लाभसे ही सन्तुष्ट हैं, द्वन्द्वातीत, बैरीभाव रहित तथा सिद्धि और असिद्धिमें समान ज्ञान सम्पन्न है, वह कम्मं करनेसे भी कर्ममें प्राबद्ध नहीं होता ॥ २२ ॥
व्याख्या। पण्डित व्यक्ति सबमें ही ब्रह्मदर्शन करते हैं। उनकी कामना और संकल्प न रहनेसे, शरीर निर्वाहके लिये जो आपसे आप
आता है, वह उसी में ही सन्तुष्ट है, उसमें भला बुराका विचार नहीं-अपना पाया भेद नहों,- शत्र-भाव भी नहीं,-उनके लिये सबही ब्रह्म है, इस करके सिद्धि अर्थात् प्राप्तिकी पति-कैवल्यस्थिति,
और असिद्धि अर्थात् तदभाव, सब एक ही एक है द्वतज्ञान न रहनेसे, कममें लिप्त रह करके भी वह लिप्त नहीं होते ॥ २२॥
गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्र प्रविलीयते ॥ २३ ॥ अन्वयः। गतसंगस्य (निष्कामस्य ) मुक्तस्य (द्वन्द्वातीतस्य ) ज्ञानावस्थितचेतसः (आत्मज्ञाननिष्ठस्य ) यज्ञाय ( परमेश्वराराधनार्थ) आचरता (अनुष्ठियतः पुरुषस्य ) कर्म समग्र ( कर्मफलेन सह ) प्रविलीयते ( विनश्यति ) ॥ २३ ॥
अनुवाद । (कारण यह है कि ) निष्काम, सुखदुःखादि द्वन्द्वविमुक्त, आत्मज्ञाननिष्ठ और विष्णुप्रीतिके लिये कर्म आचरण करनेवाला पुरुषका कम्मं राशि फलके साथ लय प्राप्त होता है ॥ २३ ॥ .. व्याख्या। पूर्व श्लोकमें जो "कृत्वापि न निबध्यते” कहा हुआ है, इस श्लोकमें उसीका कारण निर्देश किया जाता है। यज्ञका अर्थ ३ य श्रः ६ वा श्लोककी व्याख्यामें देखो। विश्वव्यापी चैतन्य-पुरुष विष्णु ही यज्ञेश्वर ( आत्मा ) है; उस विष्णुकी प्रीति साधन अर्थात् उनमें मिलके विष्णु हो जाना ही प्रात्मप्रसन्नता है। आज्ञाचक्र पार हो उठ आके आत्मचैतन्यमें स्थिर धीर प्रकाशमय जो अवस्थाकी प्राप्ति होती है, वही आत्मप्रसन्नता है, इस आत्मप्रसन्नताके लिये अनुष्ठित