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चतुर्थ अध्याय
२०६ व्याख्या। विषय-वासनाका नाम काम है; आकांक्षा वा इच्छा मात्रका नाम ही संकल्प है। संकल्पसे हो कामको उत्पत्ति है। मुक्तिकी इच्छाके लिये जो संकल्प किया जाय, कामना होनेसे भी वह कर्मबन्धनमें लाय नहीं फंसाता, इस करके उसको काम नहीं कहा जाता। पंचतत्वका नाम हो सर्व है; गुरूपदेशके अनुसारसे चित्त शुद्धि के लिये पंचतत्त्वमें जितने प्रकारकी प्राणक्रिया की जाती है, वह समम्त ही सर्व-समारम्भ है। जिनका समारम्भ समूह अर्थात् ये समस्त प्राणक्रिया काम और संकल्पविहीन है, अर्थात् क्रियासे जिनकी विभूति लाभकी तथा मुक्ति लाभकी भी इच्छा न रहे, जो अबाधतः केवल गुरुवाक्य पालन करते हैं, उनके कर्ममें अकर्म और अकर्ममें कमका दर्शन होता है; इसलिये उस अवस्था में उनको आत्मज्ञान उत्पन्न होता है, उसमें उनका सकल कर्म ही दग्ध हो जाता है; लोकसंग्रहार्थ वा शरीर यात्रा निर्वाहार्थ (लोक चक्षुमें ) कर्म अनुष्ठित सेनेसे भी, वह कर्म और अंकुरित नहीं होता, अर्थात् उस कमसे फलोत्पन्न होके उनको और कम्ममें लिप कर सकता नहीं। इस प्रकार साधक ही पण्डित अर्थात् ज्ञानी है। (२०-२२ श्लोकमें इस पण्डितकी अवस्थाकी बर्णना की गई है ) ॥ १६ ॥ .. :
त्यक्त्वा कर्मफलासंग नित्यतृप्तो निराश्रयः ।
कमण्यभिप्रवृत्तोऽपि नेव किञ्चित् करोति सः ॥ २० ॥ अन्वयः। सः (पण्डितः ) कर्मफलासंगं ( कर्मफले आसक्ति ) त्यक्त्वा नित्यतृप्तः (आत्मानन्दे तृप्तः, निराकांक्षः इत्यर्थः ) ( अतएव ) निराश्रयः (आश्रयनीय-.. रहितः सन् , आत्मना एव प्रात्मनि स्थितः इत्यर्थः) कर्मणि अभिप्रवृत्तः अपि न एवं करोति (निष्क्रियात्मदर्शन सम्पन्नत्वात् ) ॥ २० ॥
अनुवाद। वह कम्मफल के ऊपर आसक्ति त्याग करके नित्यानन्दमें परितृप्त तथा निरालम्ब होनेसे, कर्ममें प्रवृत्त रहनेसे भी कुछ भी नहीं करते ॥ २० ॥
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