________________ नवम अध्याय 385 दिया कि, “मैं” बिना और कुछ नहीं है। यह एक-ज्ञान जब न था, तब विश्व हुआ था। इस विश्वमें नानात्व,-मैं, तुम, यह, वह, सात, पांच कितने क्या हैं। जिससे जिसका बुद्धि जरा भी अधिक निर्मल है, वही उस अनिर्मल बुद्धिको अपना उपासक बना लेता है, और वह अनिर्मल उसीको ही उपासना करता रहता है। ऐसे शक्ति, शिव, विष्णु, गणेश, सूर्य्य, मनसा, महाकाल आदि कितने क्या उपास्य और उपासकके तरङ्ग चल रहे हैं, देखने में आता है। परन्तु वस्तु जो एकही एक है, उसे अर्थभेदसे खुलासा कर लेनेका शक्ति वह न पायके गोलमाल कर देता है। साधक जब गुरुमहाराजके पास प्रथम पहुंचा, तब वह कुछ भी नहीं जानता था; जाकर प्रणाम करके हाथ जोड़कर . कहा-"ठाकुर ! मैं क्यों यहां आया हूँ ? मैं क्या चाहता हूँ? मैं क्या करूंगा ?" अहो! इस सरलताके आधार शिष्यको प्राप्त होकर दयाका सागर गुरुदेव कहें-"वत्स ! तुम इस त्रितापमय संसारके ज्वालामें जलते हुए यहां आये हो, तुम्हारी मुक्ति चाहिये, इस त्रिताप और तुमको जैसे किसी तरहसे धोखा दे न सके। तुम जो करोगे, वह मैं तुमको कहता हूँ।" यह कह करके गुरुदेवने जिज्ञासु शिष्यकी बहिम्मुखी वृत्तिको अन्तमुखमें चित्त पथमें ला दिये। जब साधक मूल आधारमें, मूलाधारके ऊपर उठ बैठे, तत्क्षणात अपना अधिष्ठान को ( स्वाधिष्ठान ) प्राप्त हुए। जब अधिष्ठान अर्थात् बैठनेका जगह मिला, वैसे ही मणिमय पुरमें श्रा पहुंचे। जब मणिमय पुरके भीतर उपस्थित हुए, तत्क्षणात् देखा कि और किसीसे उनको आहत होनेका डर नहीं है। जब आहत होनेका डर दूर हो गया तत्क्षणातू अनाहत. में, "विशोका ज्योति” जिसमें त्रितापकी ज्वाला छूट जाता है-- सोचना दूर होता है, वही ज्योति खिल उठी। जब विशोका ज्योति खिल उठी, साथ ही साथ विशुद्ध अर्थात् निर्मलत्व प्राप्ति हुई। जब निर्मलत्व प्राप्ति हुई, तत्क्षणात् युगपत् अज्ञानका शेष हुभा। जब