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श्रीमद्भगवद्गीता ज्ञानीका प्रिय हूँ। पुनः ज्ञानीका हृदय सर्वदा निर्मल, वासना-मलका छायामात्र भी ज्ञानीमें नहीं है, इस कारण वहां सदाकाल ही आत्मा का स्वरूप-विकाश है; निमेषके लिये भी भगवान् वहांसे अन्तर्हित नहीं होता; ज्ञानीका हृदय ही भगवत्मन्दिर है। इस कारण कहा हुआ है कि-वह भी मेरा प्रिय है ॥ १७ ॥
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमा गतिम् ॥ १८ ।। अन्वयः। एते ( प्रातदियः ) सर्वे एव उदारा: ( महान्तः ), तु ( किन्तु ) ज्ञानो आत्मा एव मे मतम् (निश्चयः ), हि ( यस्मात् ) सः ( ज्ञानी ) युक्तात्मा ( मदेकचित्तः सन् ) अनुत्तमा ( सर्वोत्कृष्ट ) गतिं मां एव (परं ब्रह्म ) आस्थितः (आस्थितवान् ) ॥ १८॥
अनुवाद। ये सब लोग उदार हैं; परन्तु हमारे समझमें ज्ञानी आत्माका ही स्वरूप है, क्योंकि, ज्ञानी युक्तात्मा हो करके अनुत्तम गति पाकर मुझको हो आश्रय करके रहते हैं ॥ १८॥
व्याख्या । उदार - उत् +आ+ ऋ+अ। ऋ+4= 'र' का अर्थमें गमन करनेवाला। आ-विपरीत अर्थ बोधक है। इसलिये आ+र 'आर' अर्थमें आगमन करनेवाला। उत् अर्थमें ऊर्ध्वमाया के ऊपर। उत्+आर = 'उदार' अर्थमें ऊर्ध्वमें आगमन करनेवाला; अर्थात् जो साधक प्राकृतिक आवरणको भेद करके ऊपरमें आते हैं अथवा पा सकते हैं, जिनके उस कार्यमें किसी प्रकारकी बाधा नहीं रहती, वही पुरुष उदार हैं। अब प्रात, जिज्ञासु, अर्थार्थी और लपटे रहते हैं, परन्तु ज्ञानी, ज्ञानालोकमें “मैं" का स्वरूप दर्शन करके आत्मानन्दसुखसे विषयानन्द सुखमें नहीं उतरते। विषय-सुख भोगसे मन निस्तेज होता है, आत्म-सुख भोगसे मन सतेज रहता है। इसलिये ज्ञानी अत्यन्त करके आत्माको हो प्रिय मानते है ।। १७॥