________________ नवम अध्याय आदि अन्त:करण चतुष्टयको त्याग करके “मैं" को भजते रहते हैं, अर्थात् भूतके श्रादिकारण-सर्वशक्तिमती प्रकृतिके सर्वशक्तिकारण "मैं” को ही "मैं" जान करके, अव्यय निश्चय करके, मिल करके, एक हो जानेका चेष्टा करते हैं / / 13 // सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः। नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते // 14 // अन्वः / (ते महात्मानः ) सततं मां कीत्त यन्त दृढव्रताः ( सन्तः ) यतन्तः, भक्त्या मां नमस्यन्तः च, ( तथा ) नित्ययुक्ताः ( सन्तः ) उपासते / / 14 / / अनुवाद। ( वही महात्मागण ) सनत मेरे कीत्त न करके, दृढ़व्रत होकर प्रयत्न करके भक्ति सहकार मुझको नमस्कार करके, और नित्ययुक्त हो करके, उपासना करते हैं // 14 // व्याख्या। सतत (अविच्छिन्न भावसे) जब प्रकृति-पुरुषका चाक्षुषी मिलन होता है ( प्रकृति ही साधक है ), तब साधक तृतीय चक्षुकी हक्शक्ति द्वारा मुझको साधकके भीतर घुसाकर, भीतर बाहर अणु परमाणु मिलाकर आधा "मैं" हो जाकर, मेरी निगुणता और साधकको सगुणता एक करके सगुणमें विकार और निर्गुणमें निर्मालता देखते हैं। यह जो देखना है, उसीको मेरा कीर्तन कहते हैं अर्थात् अपने आशुकका गुण अकेले बैठकर मन ही मनमें जैसे आलोचना करके प्रसन्न होता हूँ, अथच मेरी उस प्रसन्नताको बाहरका कोई नहीं जान सकता; मनकी प्रसन्नता मनमें रह करके जैसे मनही भनमें मनको मतवाला करता है, यह कीर्तन भी उसी प्रकार है। निगुणकी निर्मलता जिस प्रकारसे और गुणके विकारमें मेल न हो सके तथा गुणके विकार भी जिस करके निर्मलतामें मलिनता मिला न दे सके, इस विषयमें दृढ़ता सहकार सतर्क / हुंशियार ) होते हैं। इसीको ही दृढव्रत होकर प्रयत्न करना कहते हैं। मलिनता प्रकृतिमें