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चतुर्थ अध्याय
२२३ तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥ ३४॥ . अन्वयः। तत् ( ज्ञानं ) प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया च विद्धि; तत्त्वदशिनः ज्ञानिनः ते ( तुभ्यं ) ज्ञानं उपदेक्ष्यन्ति ॥ ३४ ।।
अनुवाद। प्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा द्वारा उस ज्ञानको जाननेके लिये यतन करो ; ( ऐसा करनेसे हो) तत्त्वदर्शी आचार्यगण तुमको ज्ञान उपदेश करेंगे ॥ ३४ ॥
व्याख्या। ज्ञान क्या है, उसको जाननेके उपाय तीन हैंप्रणिपात, परिप्रश्न और सेवा। यह तीनों स्थूलसूक्ष्म भेदसे दो प्रकारके हैं। तत्त्वदर्शी गुरुदेवको भक्ति सहकार दंडवत प्रणाम “मोक्ष क्या है, विद्या क्या है, अविद्या क्या है" इत्यादि प्रश्न और परिचर्याशुश्रुषादिरूप सेवा करना पड़ता है। इस प्रकारसे प्रकृत भक्तिके उदय होनेसे ही गुरु प्रसन्न होकरके ज्ञानका उपदेश करते हैं । ज्ञान जानने का स्थूल-उपाय यह है। और कूटस्थ में गुरुपदको लक्ष्य करके प्राणवायुको एक जगहसे दूसरी जगहमें यथारीति (गुरुमुखी प्राणायाम ) फेंकना, इसके साथ ही साथ मनही मनमें आयत स्वरमें प्रणव उच्चारणरूप सेवा करना, और मनही मनमें जाननेका विषय प्रश्न करनायह सब सूक्ष्म उपाय है। इस प्रकार सूक्ष्म क्रियासे मन विषय संश्रवरहित हो आनेसे ही गुरु लोग दर्शन दे करके तत्त्वोंके स्वरूप प्रकाश द्वारा साधकके मनको आकृष्ट करके अन्तहित होते हैं। उस समय साधक या तो कोई अशरीरी वाणी श्रवण करके, नहीं तो कूटस्थमें उज्ज्वल अक्षरमें लिखी हुई भाषा पढ़ करके जाननेका विषय-समूह जान सकते हैं। अथवा तब अन्तःकरणमें ऐसा ही कोई भावान्तर मा पहुँचता है कि, जिसमें ज्ञातव्य विषय आपही आप आय करके मन में उदय होता है। इस प्रकारसे श्रवण, दर्शन, बोधन द्वारा संशय समूह दूर हो जाके ( निजबोधरूप) पूर्ण ज्ञानावस्थामें उपनीत होते हैं। (३६ श्लोक देखो ) ॥ ३४ ॥