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श्रीमद्भगवद्गीता व्याख्या। उपकारको प्रत्याशा न रखके जो उपकार करता है, उसोको सुहृत् कहा जाता है। स्नेहवशतः जो उपकार करता है, वह मित्र है। जो शत्रुता करता है, वह अरि है। विवाद उपस्थित होनेसे दोनों दलके किसी पक्षमें जो नहीं रहते हैं, वह उदासीन हैं; दोनों दलके ही हितकी इच्छा जो करता है, वह मध्यस्थ है। जो द्वषका पात्र-अप्रिय है, वह द्वष्य है। जिसके साथ कोई सम्बन्ध है, वह बन्धु है। शास्त्र वचन अनुसार जो क्रियानुष्ठान करते हैं, वह साधु हैं; और शास्त्र जो मानते नहीं, वह पापी हैं। योगारूढ़ योगी इन समुदयमें समज्ञान सम्पन्न कह करके विशिष्ट है ॥ ६ ॥
योगी युजीत सततमात्मानं रहसि स्थितः । एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः ॥ १० ॥
अन्वयः। [ एवमुत्तमफलप्राप्तये ] योगी ( घ्यायो ) रहसि ( एकान्ते निर्जननिरुद्वेगप्रदेशे ) स्थितः ( सन् ) ( तथा ) एकाकी ( संगशून्यः ) यतचित्तात्मा (चित्त अन्तःकरणं आत्मा देहश्व संयतो यस्य सः ) निराशोः (पीततृष्णः ) अपरिग्रहः (सन्) सततं आत्मा ( अन्तःकरण-मनः ) युजीत ( समाहितं कुर्य्यात् ) ॥ १० ॥
अनुवाद। योगी आकांक्षा और परिग्रह त्याग तथा देह और मन संयत करके निर्जन स्थानमें अकेला बैठके मनको सर्वदा समाहित करेंगे ॥ १०॥
व्याख्या। योगारूढ़ अवस्था ही योगका उत्तम फल है, वह प्राप्त करनेके लिये योगीको निर्जन उद्वगविहीन एक गुप्त स्थानको चुनकर, साथ किसीको न रखके अकेला वहां बैठके देह और मनको संयत करना होवेगा; मनसे श्राशा ( आकांक्षा ) मात्रको दूर करना होवेगा;
और सर्वत्यागी होना होवेगा; अर्थात् अन्तःकरणमें जब जिस भाव का उदय होवेगा, तत्क्षणात् उसीको दूर करना पड़ेगा। इसी प्रकार सावधान होकर मनको समाहित करना पड़ता है।