________________ 366 श्रीमद्भगवद्गीता मुझको ग्रहण करते हो, उसीको निग्रह कहा जाता है। यदि तुम न उतरो तो तुम्हारा 'त्वं' त्व चला जाता है, और तुम "मैं" हो जाते हो। यदि तुम उतर आ पड़ो, तब हो उत्सृजन होता है, अर्थात् ऊंचेमें जो तुम "मैं" हुए थे, उतर पाकर फिर उसी "मैं" को तुम सृष्टि कर डालो। तब ऊँचेवाला मैं तुम्हारे लिये "तुम" हो गया, और नीचेवाला “मैं” जो तुम थे उसी तुमको तुम "मैं" कर लिया। अतएव सब दिशामें मैं ही मैं वर्तमान हूँ // 16 // त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा यज्ञैरिष्टा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते। ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक मश्नन्ति दिव्यान् दिवि देवभोगान् // 20 // अन्वयः। विद्याः (ऋक्यजुसामषिदः ) यज्ञः मा इष्टा ( संपूज्य ) सोमपाः पुतपापाः ( सन्तः) स्वर्गति ( स्वर्गगमनं ) प्रार्थयन्ते, ते पुण्यं ( पवित्रं ) सुरेन्द्रलोक आसाद्य (संप्राप्य ) दिवि दिव्यान् देवभोगान् अश्नन्ति ( भुञ्जते ) // 20 // अनुवाद। त्रिवेद वेत्तागण यज्ञानुष्टानसे मुझको पूजा करके गोमपायौ तथा निष्पाप होकर स्वर्गगतिकी प्रार्थना करते हैं; वह लोग पवित्र सुरेन्द्रलोककी प्राप्त होकर स्वर्गमें दिव्यदे, भोग सब भोग करते हैं / / 20 // व्याख्या। "त्रै” कहते हैं सत्त रजः तमः गुणके अधिष्ठाता ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन तीन देवतोंको। जब क्रियामें बैठनेसे साधक में इन तीन गुणकी समता आती है, तबही इन तीन देवताओंकी पृथकता नष्ट हो जाती है। प्रकृति तब साम्यभाव करके सत्वरजस्तमो गुणमयी होती है अर्थात् धर्म-अर्थ-कामको गर्भमें लेकर मुक्ति की आकांक्षासे अपेक्षा करती है। सत्त्वका प्रकाश, रजोकी क्रिया, तमोकी स्थिति एक हो जाकर क्रियाशून्य अधिष्ठान मात्र होके रहती है। मायाको इस अति उच्च अवस्थाको विद्या कहते हैं। इस