________________ नवम अध्याय 367 अवस्थाके बाद ही माया हममें पड़कर "मैं" बन जाती है / साधकका जब यह अवस्था आता है, तब सहस्रारसे सुधा ( सोमरस ) का क्षरण होता है / वह सुधा पापाद मस्तकका पोषण करती है। इसीलिये तब साधक सोमपायी है। इस अवस्था में साधककी चञ्चलता मात्र भी नहीं रहती; अतएव निष्पाप है। यह जो सुधाकी पावन है, यही यज्ञ है। यह अवस्था भी साधककी निर्बीज समाधि नहीं है। इसलिये अवसर मिलनेसे ब्रह्मत्व-सुख भोग करते हैं। यह सुख मर जगत् का कोई किसीके सादृश्यमें नहीं आती; इसलिये "देवभोग" कहा हुमा है। "आठो पहर जो लड़े सो सूर"- अर्थात् अष्ट प्रहर जो क्रिया कर सके वही सुर है। जिसका एक भी निश्वास वृथा न जाय वही सुरेन्द्र है // 20 // ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति / एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते // 21 // अन्वयः। ते तं विशालं स्वर्गलोकं भुक्त्वा पुण्ये क्षीणे (पति) मर्त्यलोक विशन्ति; कामकामाः ( भोगकामयमानाः सन्तः ) त्रयोधम्भं ( वेदत्रयविहितं धर्म) अनुप्रपन्ना: ( जनाः ) एवं गतागतं लभन्ते / / 21 // ___ अनुवाद। वह लोग विशाल स्वर्गलोकको भोग करके पुण्यक्षय होनेसे मत्यलोकमें प्रवेश करते हैं। भोगकामनाके साथ वेदत्रय घिहित धर्मका अनुष्ठान करनेसे इस प्रकार आवागमन करमा होता है / / 21 // व्याख्या। पुण्व-पु-पुंज् ( पिप= पिर्कीके भीतरका गरदा) अर्थात मलमूत्रमय देह +ण= निर्वाण+यं स्वरूप / मलमूत्रमय देह * नि:- नास्ति, वाण - भेद कारक पदाथ। वायुके साहाय्य बिना किसीसे कोई किमीफो भेद कर नहीं सकता, इसलिये वायु भेदक वा वाण है। यह वायु जव "निः" होजाय-न रहे अर्थात् समताको प्राप्त होता है, उसी अवस्थाका नाम निर्वाण