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श्रीमद्भगवद्गीता देते हैं; उस समय वह सहज प्राण-यज्ञ लक्ष्य करा देकर कौशलप्रयोग-प्रकरण सिखलायके कहते हैं "इसीसे ही उन्नति, इसीसे ही इष्टफलकी प्राप्ति है" ॥ १०॥
देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥ ११॥ अन्वयः। अनेन ( यज्ञेन यूयं) देदान् मावयत ( संवर्द्ध यत); ते देवाः वः (युष्मान् ) भावयन्तु ( संवर्द्ध यन्तु ); ( एवं ) परस्परं ( अन्योन्यं ) भावयन्तः ( देवाश्च यूयं च) परं श्रेयः अवाप्स्यथ ॥ ११॥
अनुवाद। इस यज्ञसे तुम सब देवतनको भावना करो, वह देवतागण तुम सबकी भावना करें। इस प्रकार परस्पर भावनासे तुम लोग परम इष्टलाभ करोगे ॥११॥
व्याख्या। साधनमार्गमें-शिव, शक्ति, विष्णु, सूर्य, तथा गणपति-ये पांच देवता उपास्य हैं। ये पांच ही सब देव-गंधर्व-किन्नरादिके आश्रय हैं। साधकमात्र ही इन पांच देवतन्का उपासक है, क्योंकि, एक ब्रह्म ही भूलोक मूलाधारमें गणपति, भूवलोकस्वाधिष्ठानमें शक्ति, स्वलोक-मणिपुरमें सूर्य, महर्लोक,-अनदाहतमें विष्णु, जनलोक-विशुद्धाख्यमें शिव, ये पंच रूपसे आविर्भूत होकरके साधकों के हित साधन करते हैं। ये पांच-क्षर ब्रह्म है। इस क्षरउपासनासे भूतशुद्धि होने के पश्चात् तपलोक-आज्ञामें अक्षर ब्रह्म कूटस्थ-पुरुषकी उपासना होती है ; पश्चात् सत्यलोक-सरस्रीरमें उत्तम पुरुषको समझ लेकरके सर्वविद होकरके, सत्-असत्के पर जो, है, वही होना होता है।
इस यज्ञ द्वारा उन देवतनको भावाना होता है अर्थात् अभिषेक द्वारा उन देवतनको जगाना होता है ; देवगण जाग करके पश्चात् जीवको भावाते हैं, अर्थात् तत्त्वज्ञान करके आभूषित करते हैं। इस प्रकार परस्परोंकी भावनासे परंश्रेय जो परमागति अर्थात् आत्मगति वा मुक्ति है, वह प्राप्त होती है।