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__ श्रीमद्भगवद्गीता करना होता है। कम्ममें कौशलका प्रयोग करना ही योग है। विशाल जल-प्रवाहका वेग कोई धारण कर नहीं सकता, किन्तु कौशलसे उस प्रवाह की गति विभिन्न दिशामें विविध स्रोत करके घुमा देनेसे धीरे धीरे आयत्तमें आता है, उसी प्रकार प्राण-प्रवाह-रूप जो कर्म जीव शरीरमें स्वभावतः ( आपही आप ) सम्पन्न होता है, किसी प्रकार कौशलसे* उसको विभिन्न राहमें चला देके क्षीण करके लानेसे अपने अायत्तमें लाया जाता है; पश्चात् अात्मतेजसे उस प्राणको यथा स्थानमें आहूति देनेसे जो अवस्था होती है, उसोको योग कहते हैं ॥५०॥
कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः । जन्मबन्धविनिम्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम् ॥ ५१ ॥
अन्वयः। मनीषिणः ( पण्डिताः ) बुद्धियुक्ताः ( सन्तः ) कर्मज फलं त्यक्त्वा जन्मबन्धविनिम्मुक्ता ( भूत्वा ) हि अनामयं पदं ( विष्णुपद ) गच्छन्ति ।। ५१ ॥
अनुवाद। मणीषिगण बुद्धियुक्त हो करके कर्मजफल परित्याग कर जन्मरूप बन्धनसे मुक्त होकर जनामय पद अर्थात् भवरोग-विहीन-पदको निश्चय प्राप्त होते है ॥५१॥
* यह कौशल कसी है वह गुरुमुख बिना जाना नहीं जाता। -"शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्" कपटता छोड़ करके वीतराग होके अन्तःकरणके निर्जन स्थानमें परा वैराग्यके साथ यह बात कहनेसे गुरुदेव सूक्ष्म शरीरमै आविर्भूत होकर मनके भीतर वह कौशल प्रकाश कर देते हैं। स्थूल शरीरमें रह करके गुरुदेव जितना उपदेश देते हैं, कृती ( कामका कामी ) शिष्य न होनेसे उस उपदेशको धारण कर नहीं सकते। एकमात्र गुरूपदिष्ट कानुष्ठान करनेसे ही क्रम अनुसार अन्तरावरण सकलके लक्ष्य होते रहनेसे वह सब नष्ट करनेका उपयोगो कौशल भी आप हो आप मालूम हो जाता है; कल्पना अनुमान करके उसके एक भो जाननेका उपाय कोई नहीं, वो कौशल वाणीमें भी ठीकसे कहा जाता नहीं, कहनेसे भी वह बात उपन्यास की घटनावली की बातोंके सहश केवल कल्पनामें ही रह जाती है ॥ ५० ॥