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________________ प्रथम अध्याय ततः शंखाश्च भेय॑श्च पणवानकगोमुखाः । सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥ १३ ॥ अन्वयः। ततः ( तदनन्तरं ) शंखाश्च भेर्यश्च पणवाः (मर्दलाः ) आनका: ( ढक्वाः ) गोमुखाश्च ( वाद्यविशेषाः ) सहसा एव अभ्यहन्यन्त ( वादिताः ), सः शब्दः तुमुलः ( महान् ) अभवत् ॥ १३॥ ___ अनुवाद। उसके बाद शङ्ख, मेरो, पणव, आनक, और गोमुखादि बाजे सहसा बज उठे; उपका तुमल शब्द हो गया ॥ १३ ॥ व्याख्या। साधकके इस अवस्थामें श्रा पहुँचनेसे उनके शरीरकी नाड़ी समूहके छिद्र पथमें वायुके प्रवेश करनेके कारण नाना प्रकारके शब्द उठते हैं। तुरी, भेरी, ढक्का, ढोल, कांसी, वंशी प्रभृतिके एक साथ बजनेसे जो गोल माल मिला हुआ एक शब्दका झुरमुट सुनने में आता है, यह शब्द भी उसी तरहका एक है, जैसे बहुत दूरसे हाट, सट्टी या बाजारका रव मच रहा है, वैसा ही शब्द सुनाई देता है॥ १३॥ - ततः श्व तैर्हयैर्युक्त महति स्यन्दने स्थितौ । _माधवः पाण्डवश्च व दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः ॥ १४ ॥ ___अन्वयः। ततः श्वेतः यः ( अश्वैः ) युक्त महति स्यन्दने ( रथे ) स्थितौ माधवः ( श्रीकृष्णः ) पाण्डवश्च ( अर्जुनश्च ) एव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः ( प्रकर्षण वादयामासतु ) ॥ १४ ॥ अनुवाद। इसके उपरान्त माधव ( श्रीकृष्ण ) और पाण्डव ( अर्जुन ) ने श्वेत अश्वयुक्त महारथमें बैठके दो शङ्ख बजाये ॥ १४ । व्याख्या। वासनावृत्ति ( प्रवृति द्वारा साधकके उतर पड़नेसे भी आत्ममुखी वृत्ति (निवृत्ति ) मनमें उदय हो करके फिर उनको ऊर्द्धमना करती है, अर्थात् साधक जब वहिमुखी वृत्तिको समेटके हृदयमें प्रवेश करते हैं, तब अधिकतर ऊंचे किसी एक स्थानमें वह अटक जाते हैं; वही स्थान महती स्यन्दन या उत्कृष्ट रथ है। तब साधकको एक
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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