________________
२७६
श्रीमद्भगवद्गीता पूजा करनेसे इष्टदेवता प्रसन्न होके सर्वसिद्धि प्रदान करते हैं कह करके इसका नाम सर्वदा हुआ। इस 'सर्वदा' को लक्ष्य करके ही 'सदा' और 'सतत' शब्द बैठाया हुआ है, इस समयको ही योगाभ्यासके लिये प्रकृष्ट समय जानना, क्योंकि, अष्टप्रहरके भीतर इस समयमें ही तमोगुणका पूर्ण प्रभाव वर्तमान होता है, इस समयमें क्रिया करनेसे मन शीघ्र विशुद्ध तमोके आकर्षणमें पड़कर स्थिर होके स्थिति-पद पाता है, अर्थात् समाहित होता है। प्रथम प्रथम समाधि निमिष-स्थायो होता है; क्रम क्रमसे अभ्यास वृद्धिके साथ ही साथ समाधिका स्थिति-काल भी बढ़ता है। अवलम्बन भेद करके समाधि दो प्रकारका है,-जड़-समाधि और चैतन्य-समाधि। ध्यानावस्थामें प्राकृतिक किसी पदार्थको अवलम्बन करके यदि अन्तःकरणवृत्ति मिट जाय, तो जड़-समाधि कहा जाता है; यह निकृष्ट है। परन्तु ध्यानावस्थामें चतन्य वा आत्मासे च्युत न होके यदि मन उस चैतन्य वा आत्मामें ही लीन हो जाय तो उसे चंतन्य-समाधि कहा जाता है। यह चैतन्य-समाधि ही इस श्लोकमें 'मत्संस्थां शांति' है। चैतन्यसमाधिको ही योगशास्त्रमें समाधि कहा है। यह समाधि भी पुनः दो प्रकारकी है-सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात। जिस प्रकारकी समाहित अवस्था में प्रज्ञा अर्थात् ज्ञान रहता है, अर्थात् जिस अवस्थामें अन्तःकरण सर्वतोभाव करके आत्म-लक्ष्यमें श्राबद्ध होता है, विक्षेष का नाम मात्र नहीं रहता, किन्तु अपने अस्तित्वकी विभिन्न अवस्थाका बोधन होता रहता है, इस प्रकार समाधिको ही सम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं। सम्प्रज्ञात समाधि फिर अन्तःकरणकी मन-बुद्धि-अहंकारचित्त इस क्रमसे क्षेत्रभेदसे वितर्क-विचार-आनन्द-अस्मिता इन चार प्रकारकी है। और जब सब मिट जाती है, वृत्तिविस्मरण अवस्था
आती है कोई ज्ञानही न रहे, उसीको ही असम्प्रज्ञात समाधि कहते हैं। यही है सर्वोत्कृष्ट चरमसमाधि; यह सर्वोत्कृष्ट असम्प्रज्ञात