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तृतीय अध्याय . १४१ अनाहत चक्र है। उस प्राण रूप कमसे ही यज्ञ अर्थात् "त्याग-ग्रहण क्रियाकी उत्पत्ति है, एक मात्र तेजके सहारासे ही संसारका ग्रहणत्याग, आकर्षण विकर्षण इत्यादि क्रियायें सम्पन्न होती हैं, इसी लिये तेज ही यज्ञ है, इनका स्थान मणिपुर चक्र है। तेजके क्रिया रूप यज्ञसे रसतत्त्व उत्पन्न, जो सतत निमग्र कह करके पर्जन्य नाम पाये हैं , इनका स्थान स्वाधिष्ठान चक्र है। रसतत्त्वसे पृथ्वीतत्त्वकी सृष्टि है ; यह पृथ्वी ही अन्न है, क्योंकि यही आधार है इसीलिये च्नका नाम भी मूलाधार, स्थान भी मूलाधार चक्र है। इस अन्नरूप मूलाधारसे ही भूत (जो जाता है ) अर्थात प्राणी उत्पन्न है ; मृदंशके.
आवरणमें प्राण प्रवेश करनेसे ही प्राणी मृष्ट होता है, इसीलिये कहा हुआ है कि अन्न सेही भूत होता है। यह जो अक्षरसे भूत पर्यन्त सृष्टि-प्रकरण * व्यक्त हुआ, ये सब एकसे उत्पन्न होनेसे भी विकारज कह करके परस्पर पृथक हैं ; किन्तु इन सबके भीतर एक साधारण सम्पत्ति है, वह शब्दब्रह्म वा प्रणव है । आकाशका शब्द-वायु, तेज, जल, मिट्टी सबमें ही है, किन्तु वायुके स्पर्श, तेजका रूप, जल का रस तथा मिट्टीका गन्ध व्योभमें व्यक्त नहीं है। पुनश्च व्योमका शब्द वा शब्द ब्रह्मके सहारासे "अक्षर" तथा "उत्तम" गतिकी प्राप्ति होती है,
"बनेरन्तर्गतं ज्योतिः ज्योतिः ज्योतेरन्तर्गतं मनः ।
तन्मनो विलयं याति तद्विष्णोः परमं पदम् ॥" इसीलिये यह शब्दरूप ब्रह्म सर्वगत है। यह फिर यज्ञमें नित्य प्रतिष्ठित है ; कारण यह है कि मणिपुरस्थ तेजके प्रभाव करके जो
. * मूलं श्लोकमें, साधनमार्गमें निवृत्तिकम देखलानेके लिये, कार्यसे आरम्भ करके शेष कारण दिखलाये गये ; किन्तु व्याख्याने समझानेकी सुषिस्ता के लिये, कारणसे आरम्भ करके सृष्टि प्रकरणके अनुसार कार्य विस्तार देखाया. गया ॥ १४ ॥ १५॥