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पंचम अध्याय उपदेश अनुसार नानाविध आसन-मुद्रादि रूप शारीरिक क्रियाका अनुष्ठान करते हैं;-प्राण क्रियाके साथ आत्ममन्त्र, इडाषिङ्गला-शोधन मन्त्र, प्रन्थिभेद मन्त्र प्रभृति विविध प्रकार जप और कीर्तनादि रूप मानसिक क्रियाका अनुष्ठान करते हैं;-बुद्धिसे सत् और असत् निश्चय करके "हृदि सन्निविष्टः" होते हैं, और अन्तरतम प्रदेशमें प्रवेश करके "केवल इन्द्रिय” द्वारा तत्-पद्, नाद, बिन्दु प्रभृति परमार्थ तत्त्वोंके दर्शन, श्रवण, बोधनादि क्रिया करते हैं। बहिर्विष्यसे प्रतिनिवृत्त ममत्वबुद्धि-शून्य अन्तमुखी इन्द्रिय ही "केवल इन्द्रिय" है। योगीगण यह सब जो जो क्रिया करते हैं, उसमें फल प्राप्तिकी आशा नहीं रखते, केवल गुरु वाक्यके पालन करते रहते हैं। संग वा आसक्ति रहनेसे आत्मशुद्धि नहीं होती ॥ ११॥ .
युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् ।
अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥१२॥ ..... अन्वयः। युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा (नष्ठिासम्भूतां ) शान्ति आप्नोति ; अयुक्तः कामकारेण ( कामतः प्रवृत्या ) फले सक्तः ( सन् ) निबध्यते (नितरां ) बन्धं आप्नोति ) ॥ १२॥ :
अनुवाद। युक्त पुरुष कर्मफलको त्याग करके नैष्ठिकी शान्ति प्राप्त होते हैं, और अयुक्त व्यक्ति, कामना वशसे आसक्त होयके कर्म में आवद्ध होय पड़ता है ॥ १२॥
व्याख्या। (दशम श्लोकके प्रणालीसे, और ११ श्लोकके प्रकार अनुसार क्रिया करके साधक जो जो अवस्था प्राप्त करते हैं, वही बात १२ से १५ श्लोक पर्यन्त चार श्लोकमें कहा हुआ है, अर्थात् साधक प्रथमतः युक्त पश्चात् नैष्ठिकी-शान्ति-प्राप्त, उसके बाद वशी, उसके
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