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चतुर्थ अध्याय
१६१ परिशेषमें अहंकार अतिक्रम करके चित्तक्षेत्र है। यह भी आनन्दमय कोष है; क्योंकि आनन्दमय कोषका अहंत्वमय निम्नतर स्तर अहंकार,
और अहंत्वविहीन ऊर्द्धतर स्तर चित्त है। इस चित्तक्षेत्रमें एकमात्र चिन्तन-वृत्ति अवशिष्ट रहता है, अपर तीन वृत्तिका कोई भी रहता नहीं, अर्थात् यहाँ एक पाद धर्म और तीन पाद अधर्म होता है; इसलिये यह कलि * वा कलियुग है। इस अहंत्व-विहीन महत् अवस्थामें इष्टदेव कल्कि रूपसे दर्शन देके साधकके पुनः संसार-स्फुरण के बीज स्वरूप म्लेच्छाभावको नष्ट करते हैं; वहीं चित्तवृत्तिका निरोध है। इस चित्तवृत्तिका निरोध करनेसे और कोई वृत्ति ही रहती नहीं-अवलम्बन करके रहनेका कुछ भी नहीं रहता है, तब सर्ववृत्तिविहीन हो जाता है; वही विशुद्ध अधर्म * * वा निरालम्बनावस्था है । इस अवस्थामें प्रकृति साम्यावस्थाको प्राप्त होके ब्रह्माश्रया त्रिगुणात्मिका माया नामसे विभुमात्र हो जाते हैं, तत् पश्चात् द्वैतभावके नष्ट हो जानेसे, माया भी रहती नहीं, एकमात्र ब्रह्म ही रहते हैं । वह कैसा है सो "अवाङ मनसोगोचरः” वाणी-मनके अतीत ( अविषय ) *** ॥ ७॥
* सृष्टिमुखमें तत्व गणनाके समय यह चित् वा महत् ही प्रथम है, फिर अन्त:करणके भी प्रथम है; यहांसे भी गणनाके ( कल-गणना ) प्रारम्भ होती है। इसलिये इसको कलि कहा जाता है ॥ ७॥
** अ- नास्ति+धर्म, जिस अवस्थामें कोई धर्म ही नहीं रहता ॥७॥
*** प्रवृत्ति निवृत्ति भेद करके जोवके कालस्रोत दो अंशमें विभक्त है; प्रति अंश फिर चार चार अंशमें विभक्त है; उस एक एक ठो विभागका नाम युग है । बहिर्जगत में ( संसार मार्गमें ) जैसे प्रवृत्ति-स्रोत सत्य, त्रेता, द्वापर, कलि-इन चार क्रमसे प्रवाहित है, अन्तर्जगतमें भी ( साधन मार्गमें भी ) तसे निवृत्ति-स्रोत सत्य, त्रेता, द्वापर, कलि-इस प्रकार युगक्रममें ही काल कटायके लययोगमें उठ जायके “अन्तिमे कलौ" मुक्ति अर्थात् कालातीत निवृत्ति पदको प्राप्त होते हैं। वृहत् ब्रह्माण्डके (सौरजगत्की ) स्वाभाविक गति तथा क्रियाके अनुवर्तन ही संसार-मार्ग, और उस अनु