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तृतीय अध्याय सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि । . प्रकृति यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥ ३३ ॥
अन्वयः। ज्ञानवान् अपि स्वस्याः प्रकृतेः सदृशं चेष्टते, भूतानि प्रकृति यान्ति, निग्रहः किं करिष्यति। ( प्रकृतिः यथा चेष्टते ज्ञानवान् तथा एव चेष्टते इति अपिशब्दार्थः) ।। ३३ ॥
अनुवाद। ज्ञानवान भी अपनी प्रकृतिके अनुरूप चेष्टा करते हैं। भूत सकल प्रकृतिमें जाते हैं, निग्रह करेगा क्या? ॥ ३३ ॥
व्याख्या। “सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः"-सत्त्व,रजः, तमः इन तीन गुणोंके साम्यावस्थाका नाम प्रकृति है। इस साम्यावस्थाके भंग हो जानेसे प्रकृति “परा” तथा “अपरा” इन दो अशमें विभक्ता हो करके क्रियाशीला होती है। "अपरा" भूमि, आप, अनल, वायु, खं, मन, बुद्धि और अहंकार-इन आठ प्रकारके हैं; "परा"-जीवभूता प्राणरूपा जगद्धात्री हैं। इनको अक्षर पुरुष कह करके भी किसी-किसी जगहमें सम्बोधन किया गया। ये सब ही यन्त्र स्वरूप, चैतन्य सहयोगसे ही क्रियायुक्त होती है। इन सबको प्राप्त हो करके ही "ममैवांशः” जीव बनते हैं। ., यह जीव जब परिपूर्ण होने के लिये व्रती होते हैं, तब वह ज्ञान... वान संज्ञा ले करके अपनी प्रकृतिके सदृश ही चेष्टा करते हैं, अर्थात् . क्रियाशीला प्रकृति जीवको अपनी अधीनतामें रखनेके लिये सतत . जिस प्रकारकी चेष्टा करती है, ज्ञानवान भी प्रकृतिको वश करनेके लिये ठीक उसी प्रकार चेष्टा करते हैं, अर्थात् "यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिरं। ततस्ततो नियम्यैतत् आत्मन्येव वशं नयेत् " इस नियमके अनुसार आत्मक्रियामें रत रहते हैं। वैसी चेष्टा करनेसे, भूत सकल प्रकृतिमें जाता है, अर्थात् इन्द्रिय सकल साम्यावस्थाको प्राप्त होती है। यह आपही श्राप होता है, निग्रह करना नहीं होता