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________________ चतुर्थ अध्याय १६७ मिलने नहीं सकते। लाल, नील, कांचका आवरण हटा देनेसे ज्योतिके जैसे विविध रंग मिट जाके एक मात्र स्वरूप ज्योति खिल आती है, तैसे स्थिर विश्वास करके अर्थात् व्यवसायात्मिका बुद्धिसे अपनेको "मैं" ज्ञान करके लययोगका अवलम्बन करनेसे ही सब आवरण आपही आप क्षय होता है, तब मैंही "मैं" यह ज्ञान आ करके "मद्भावमागतः" होता है ॥ ११॥ कांक्षन्तः कर्मणां सिद्धि यजन्त इह देवताः। क्षिप्र हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥ १२॥ . अन्वयः। कर्मणां सिद्धि कांक्षन्तः इह देवताः यजन्ते, (किन्तु) कर्मजा सिद्धि मानुषे लोके क्षिप्र भवति हि ( इति निश्चयः ) ॥ १२ ॥ अनुवाद। जिस सबको बहु कर्मसिद्धिकी आकांक्षा रहती है, सो सब इह लोकमें देवताओं का यजन करते हैं; किन्तु मानुष-लोकमें कर्मज सिद्धि शीघ्रही होती है ॥ १२॥ व्याख्या । प्राप्तिकी प्राप्ति अर्थात् कैवल्यशान्ति वा सुख दुःखादिद्वन्द्व-विमुक्ति ही सिद्धि है। शब्दादि विषयको अतिक्रम करके अविषय-क्षेत्र चिदाकाशमें प्राणको फेंकनेसे जो स्थिर भाव आता है, उसीका नाम सिद्धि है। साधनाकी सुविस्ताके लिये प्रथमक्रिया, द्वितीयक्रिया, तृतीयक्रिया प्रभृति गुरुदत्त विविध कर्मका जो अनुष्ठान करना पड़ता है, उसके पृथक् पृथक् फल हैं, वही सब विभूति हैं। वह सब विविध कर्म कर्त्तव्य बोध करके, आदेश पालनके अनुरोधसे, अपने स्वार्थ सिद्धिकी इच्छा न रखके आचरण करना ही विधि है; ऐसा होनेसे ही सिद्धि लाभ होती है। किन्तु साधक यदि हृदयकी दुर्बलताके लिये क्रियाकालमें उसी उसी कर्मके फलके प्रति आसक्ति रखके कर्म करते रहें-मन ही मनमें कैवल्य-शान्तिकी आकांक्षा करे, ऐसा होनेसे उसके "इह" अर्थात् धर्मक्षेत्र-कुरुक्षेत्र रूप
SR No.032600
Book TitlePranav Gita Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanendranath Mukhopadhyaya
PublisherRamendranath Mukhopadhyaya
Publication Year1997
Total Pages452
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationInterfaith
File Size29 MB
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