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श्रीमद्भगवद्गीता - अनुवाद। हे अर्जुन ! जो हमारा इस प्रकार दिव्य जन्म और कर्मको स्वरूपतः जान लेते है, वह देह पातके अनन्तर और पुनरावृत्ति लेते नहीं, मुझको ही प्राप्त होते हैं ॥ ९॥
व्याख्या। वो जो युग युगमें ईष्टदेव चिन्मय, चित्तमय, विज्ञानमय, मनोमय प्रभृति विविध रूपसे आविर्भूत होके, साधुरक्षण, दुष्कृत-नाशन तथा धर्म-संस्थापन रूप क्रिया करते हैं, वही है उनके आत्म-माया कृत वा निज इच्छा कृत जन्म-कर्म; वह समस्त ही दिव्य (दिव्=अन्तराकाश+ य=स्थिति ) है क्योंकि वह सब अन्तर में ही प्रकाश पाता है, बाहरमें नहीं पाता। क्रियाके अनुष्ठानसे साधनक्रममें अन्तरके भीतर उठते उठते जो उस जन्म-कर्मको जानते रहते हैं, वही तत्त्वतः ( यथार्थ रूपसे) जान सकते हैं, वाणीके उपदेश से वा पुस्तकादि पठन करके जाननेसे जानना नहीं होता। इष्टदेवके सस दिव्य जन्म-कर्मको तत्वतः जाननेसे देहत्यागके ( मृत्युके ) समय मानस-नेत्र विषयावरण करके ढंका न पड़नेसे शुद्ध चैतन्य-ज्योतिमें लगा रहता है, जिसलिये और जनम लेनेका अवसर नहीं आता, परमागति ( आत्म स्थिति) लाभ होती है ॥ ६ ॥
वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः ।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः॥ १०॥ अन्वयः। ज्ञानतपसा पूताः (श्रु द्वाः ) बहवः (अनेकाः ) वीतरागभयकोधाः मन्मयाः ( मदेकचित्ताः) मा उपाश्रिताः ( मां एव आश्रिताः सन्तः ) मद्भावं आगताः (प्राप्ताः)॥१०॥
अनुवाद। ज्ञान और तपस्यासे पवित्र अनेक साधक अनुराग-विहीन, मयविहीन, क्रोध-विहीन और मदेकचित्त होके मुझको भाश्रय करके मेरे भावको ही प्राप्त हुये हैं ॥ १० ॥
- व्याख्या। मैं ही ब्रह्म हूँ; ब्रह्म ही सब है-यह दृढ़ धारणा ही (विशुद्ध लौकिक ) ज्ञान है। और "समंकाय-शिरोमीवं” होके,