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सप्तम अध्याय
३२५ अवलम्बन करके, एकमात्र उसीका अनुसरण करना होता है; प्रकृति ( माया ) दमनकी चेष्टा करना ही नहीं। ऐसा होनेसे, आप ही आप माया निस्तेज होनेसे, अनजान भावमें माया भी अतिक्रम हो जाती है, गुणातीत अव्यय आत्माको भी जाना जाता है, और पुनः मायाके बन्धनमें भी नहीं पड़ने होता ॥ १४ ।।
न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिता ॥ १५ ॥ अन्वयः। दुष्कतिरः ( दुकम्म कारिगः ) मूढाः (विवेकशून्याः ) नराधमाः मायया अपद्दतज्ञाना8 ( निरस्नशास्त्राचार्योपदेश ननितज्ञाना: ) आसुरं भावं (दम्भोदोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यधेव चेत्यादि रूपं भावं) आश्रिताः ( प्राप्ता: सन्तः) मां न प्रपद्यन्से ( भजन्ति ) ॥ १५ ॥
अनुवाद। बुरा काम करनेवाला विवेक विहीन नराधम लोग मायासे हत ज्ञान और आसुरिक भावग्रस्त हो करके "मुझ" को नहीं भजते ॥ १५ ॥
व्याख्या। जो लोग बुरा काम करनेवाला है, अर्थात् जो लोग आत्मकर्मको त्याग करके शास्त्र-निषिद्ध बुरा काम सब करता है, वह लोग दुष्कृत् है। वह सब दुष्कर्मी सत् असतका विचार नहीं कर सकते इसलिये मूढ़ अर्थात् विवेकज्ञान-विहीन हैं। इसलिये वह सब निकृष्ट नर हैं। मायाके चक्रमें पड़कर उन लोगोंका शास्त्राचार्योपदेशजात ज्ञान भी लोप हो जाता है, अर्थात् वह लोग शास्त्र-आलोचनाका ज्ञान और गुरूपदेशका ज्ञान धारणामें नहीं रख सकते; अतएव वे लोग दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोधादि आसुरिक भाव ले करके सदाकाल प्राकृतिक तत्त्वमें मोहित हो रहते हैं, आत्मतत्त्वको नहीं पकड़ सकते। [सुकृतगण ही "मामेव" भजना करके माया पार हो सकते हैं, दुष्कृतगण नहीं हो सकते। आगेका श्लोक देखो।] ॥१५॥.