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षष्ठ अध्याय
२६३ अनुषाद। जब मानष शब्दादि विषयमें और कर्मसमूहमें संसक न होते, तब हो उनको सर्वसंकल्पत्यागी योगारूढ़ कहा जाता है ॥ ४ ॥
व्याख्या। साधक ! क्रिया करते करते जब तुम देखोगे कि, तुम्हारा मन विषयके आकर्षणमें और गिरता नहीं, प्राण क्रियाके साथ भी और तुम्हारा मनका कोई सम्बन्ध नहीं, प्राण स्थिर धीर हो गया, इच्छामात्रके भी और उदय नहीं होता, तब ही जानो तुम योगारूढ़ हुये हो। उस समय मन आपही आप सहस्रार-कियाको आश्रय करता है, उसके बिना तब और उसका दूसरा कोई साधना नहीं रहता; इसके थोड़ासा बाद ही ब्राह्मी-स्थितिकी प्राप्ति होती है। उस स्थितिभोगकाल में ही सर्व संकल्पसंन्यासी योगारूढ़ अवस्था होता है ॥४॥
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
अात्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥५॥ अन्वयः। आत्मना आत्मानं उद्धरेत् ( संसारात् योगारूढ़तामापादयेत् ) आत्मानं न अवसादयेत् (नाधोगमयेत् ) हि ( यतः ) आत्मा एष आत्मनः बन्धुः, आत्मा एव आत्मनः रिपुः ॥५॥
अनुवाद। आत्मा द्वारा आत्माको ऊद्ध (ऊंचे ) में ले जावेंगे, आत्माको अधःपातित न करेंगे, क्योंकि आत्मा ही आत्माका बन्धु, आत्मा ही आत्माका शत्रु है ॥५॥
व्याख्या। मूलाधारादि पांचो चक्रही शब्द स्पर्शादि पांच विषय के लीलाक्षेत्र है, संसार यही है। मन जबतक यहाँ रहता है, तबतक विषयके आकर्षणमें पड़के सत् असत् नाना वृत्तिके अधीन होता है। इसीलिये गुरूपदिष्ट क्रियानुष्ठानसे मनको उठाय लेके कूटस्थमें स्थिर रखना पड़ता है। इसीका नाम आत्माको उद्धार है। इस उद्धार साधन करनेसे ही विक्षेप विहीन अनासक्त अवस्था पा जाता है और